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________________ __ चतुर्थ खण्ड पचीसवाँ अध्याय ४८३ करके खाने के लिये देना चाहिये। इस मासरस के साथ ही उसको गेहूँ की रोटी, उडद की दाल आदि पथ्य देना चाहिये । लहसुन का प्रयोग भी रोगी को पर्याप्त मात्रा मे कराना चाहिये । लहसून की चटनी बनाकर भोजन के साथ देना या लहसुन को मसाले के रूप मे देना अथवा लहसन को तेल में पकाकर उस तेल और लहसुन को दाल मे छोड कर खाने के लिये देना चाहिये। ऊपर रसोन पिण्ड नामक योग का आख्यान हो चुका है। उम रसोन पिण्ड का प्रयोग प्रचुरता से किया जा सकता है। सामान्यतया सभी वात रोगो मे तेल के साथ लहसुन का प्रयोग करने को शास्त्र में बतलाया गया है, परन्तु पक्षवध, अदित आदि महारोगो मे तो बडा ही उत्तम लाभ दिखलाता है। लहसुन के वाद दूसरा स्थान प्याज का वात रोगो मे आता है। इसका भी प्रचुर प्रयोग करना चाहिये। लहसून यदि एक गाँठ वाला मिले तो अधिक उत्तम रहता है। इस का उच्च रक्तनिपीड ( Hyper tension) पर अच्छा प्रभाव दिखलाई पडता है। इस प्रकार लहसुन वात रोगो में एक महौषधि के रूप में प्रख्यात है। माषवलादि पाचन--उडद, वला की जड़, शुद्ध केवाच के बीज, रोहिप घास, रासन, असगध, एरण्ड की छाल । इन्हे सम प्रमाण में लेकर २ तोले को, ३२ तोले जल मे खौलाकर जब ८ तोला शेष रहे तब उतार कर छान ले । उसमे १ रत्ती भर घृत मे भुनी होग का चूर्ण तथा १ माशा भर पिसा हमा सेधानमक मिलाकर मन्दोष्ण नासिका द्वारा सात दिनो तक पीने से पक्षाघात, मन्यास्तभ, कान की पीडा और कर्णनाद तथा दुर्जय अदितवात अवश्य ही नष्ट हो जाता है। यदि नाक से रोगी न पी सकता हो तो इस क्वाथ का थोडा नाक से नस्य देना और शेष मुख से पीने को देना चाहिये । १ रसोनानन्तर वायो 'पलाण्डु परमौषधम् । साक्षादिव स्थितं यत्र शकाधिपतिजीवितम् ॥ (अ. सं ) . नान्यानि मान्यानि रसौषधानि परन्तु कान्ते ! न रसोनकल्कात् । तैलेन युक्तो ह्यपर प्रयोगो महासमीरे विपमज्वरे च ॥ (वै. जी.) २ मापवलाशूकशिम्बीकत्तृणरास्नाश्वगंधोरुबूकाणाम् ।। क्वाथो नस्यनिपीतो रामठलवणान्वित कोष्ण. ॥ अपहरति पक्षघात मन्यास्तम्भ सकर्णनादरुजम् । दुर्जयमदितवातं सप्ताहाज्जयति चावश्यम् ॥ ( वृन्द)
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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