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________________ भिषम-सिद्धि तैलाभ्यंग-पंचगुण या विपगर्भ तैल को हलके हाथ से मालिग भी वेदना का गामक होता है। वस्ति-प्रयोग-राध्रसी से पोडित रोगी का प्रथम पाचनादि उपायो से अग्नि को प्रदीप्त करना चाहिये । पश्चात् अग्नि के दोप्त हो जाने पर नारायण तेल, विष्णु तेल या माप तैल का वस्ति ( गुदा मार्ग मे देना) प्रारम करना चाहिये। यदि रोगी को अग्नि दीप्त न हो, अथवा ऊर्चगोधन न हुआ हो तो स्नेह वस्ति का प्रयोग निरर्थक होता है। इस की उपमा राख मे डाली गई घृत की माहुति मे शास्त्रकारों ने दा है। विशुद्ध शरीर के व्यक्ति में प्रयुक्त स्नेह मन्दाग्नि के कारण पचता नहीं अपितु वैसा का वैसा ही मल के साथ निकल जाता है। शेफालिका प्रयोग-निर्गुण्डी की पत्ती का काढा पीने से चिरकालीन गध्रमी रोग में उत्तम लाभ होता है ।' महानिम्ब का कपाय या महानिम्ब के कल्क का लेप गृध्रमी को नष्ट करता है । गृध्रसी में गिरावैध भी लाभप्रद होता है। वातकंटक-रक्तावसेचन करके अशुद्ध रक्त का निर्हरण करना चाहिये । एण्ट तेल का प्रयोग कुछ दिनो तक कराना चाहिए। छोटी मूई को रक्त तप्त करके उससे दाह करना चाहिये। पादहर्ण-(Numbness of the Feet)-अग्नि में प्रदीप्त किये हए इंट के टुकडो को काजी में वुझावुझा कर उसके वाष्प से पैर का स्वेदन करना हितकर होता है। झिन्अिनीवात-(झुनझुनी मालूम होना)- दशमूल के काढे में हीग ( घी म भुनी ) २ र० और पुष्करमूल ४ रत्ती मिलाकर पीने से लाभ होता है । पाददाह-दाहाधिकार में चिकित्सा देखें। खल्ली-( हाय-पैर की टॉम या टटाना)-कूठ-मेंधानमक-चुक्र (चूक) को पानी में पीस कर सर्पप तेल में मिलाकर किचित् गर्म करके लेप करना । १ गेफालिकादलक्वाथो मृग्निपरिसावित । दुर्वारं गध्रसीरोग पीतमा नियच्छति !! २. कुष्टमैन्धवयो कल्करचुक्रतैलमन्वितः । सुखोप्णो मर्दने योज्य: सल्लीशूलनिवारण. ॥ ३ दशमूलस्य निर्यहो हिङ्गपुष्करसंयुतः । गमयेत् परिपोतस्तु वातं झिन्दिनिसंनितम् ।।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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