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________________ २४६ भिपकर्म-सिद्धि रहे, जिसको निद्रा बिल्कुल ही न यावे ऐसा उन्माद का रोगी असाव्य हो जाता है और मर जाता है ।" क्रियाक्रम : वातिक उन्माद में प्रथम स्नेहमान, पित्तज उन्माद में विरेचन और कफजन्य उन्माद में वमन कराना चाहिये । तदनन्तर सवो में निम्हण, अनुवामन वस्ति तथा गिरोविरेचन कराना चाहिये | निम्हण स्नेहवस्ति (अनुवासन ) तथा गिरोविरेचन का यथादोप यथावल वारम्वार प्रयोग करना चाहिये । सामान्यतथा वानज में स्नेह वस्ति, पित्तज में निह वस्ति और श्लैष्मिक मे शिरोविरे• चन कराने का विधान है । परन्तु आवश्यकतानुसार सव का सर्वत्र प्रयोग हो सकता है | इस प्रकार वमनादि शोधन कर्मों के द्वारा हृदय, इंद्रिय, गिर तथा कोष्ट शुद्ध हो जाते हैं । उनके सबुद्ध हो जाने से चित्त निर्मल हो जाता है । और उसमें चेतना शक्ति तथा स्मरण शक्ति का उदय होता है और उन्माद रोग जाता रहता है । " आगे बतलाये जाने वाले अपस्मार - चिकित्माधिकार में जो यत्न वतलाये गये हैं उनका प्रयोग उन्माद रोग में करना चाहिए। क्योकि अपस्मार एवं उन्माद में दोष और दूप्प दोनों को समानता होने से परस्पर की चिकित्मा भी हितकर होती है । नशोधन के अनन्तर भी उन्मत्त रोगो मे आचार का सुधार न हो उसकी चेतना शुद्ध होकर उसमें विनम्रता न आवे तो उसमें तीव्र नस्य तथा अजन का प्रयोग करना चाहिये । मन, वुद्धि और देह को उद्घोजित करने के लिए ताडन के द्वारा उपचार करना चाहिए । यदि रोगी बहुत उद्धत (Voilent) हो तो उसको भयभीत करने के लिए किसी मजबूत पट्टी या रस्सी से ढीला बंधन करे ( ताकि उसने व्रण न बने ), लकडी के खम्भे से बांवकर अंधेरे कमरे में डाल देना चाहिये । बहुत उद्धत हो तो उसे कोड़े से मार कर किसी विजन कमरे ( जिसमें आदमी न १. जवाची वाप्युदञ्ची वा क्षीणमामवलो नरः । जागरुको हृयसंदेहमुन्मादेन विनश्यति ॥ ( मुनू. ३४ ) - • २ उन्मादेवातिके पूर्व स्नेहपानं विरेचनम् । पित्तजे कफजे वान्ति परो वस्त्यादिक क्रम. ॥ निम्हणस्नेहवस्ती गिरमच विरेचनम् । तत कुर्याद्ययादोपं ततो भूयस्त्वमाचरेत् ॥ हदिन्द्रियमिर कोष्ठे मशुद्धे वमनादिभि । मन प्रसादमाप्नोति स्मृतिज्ञा च विन्दति ॥ यच्चोपदेक्ष्यते किचिदपस्मारचिकित्मिते । उन्मादे तच्च सामान्याद्दीपदूष्ययो ॥ (भैर )
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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