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________________ तेइसवॉ अध्याय उन्माद रोग-प्रतिपेध प्रादेशिक-प्रवृद्ध-दोप उन्मार्गगामी होकर चूकि मनोविभ्रम उत्पन्न करते है अत इस मानस रोग को उन्माद कहते हैं । यह ५ पाँच प्रकार का होता है । १. वातिक २. पत्तिक ३ श्लैष्मिक ४. सान्निपातिक तथा आगन्तुक । उन्माद की उत्पत्ति में सामान्यतया विरुद्ध-दुष्ट एव अपवित्र भोजन, गुरु-माता-पिता तथा ब्राह्मणो का अपमान, अत्यधिक हर्प या भय से मन का प्रभावित होना, शरीर की विपम चेष्टावो से अन्य प्रकार से मन पर आघात पहुंचना हेतु होता है। इन कारणो से प्रकुपित हुए वातादि दोष सत्त्व गुण की कमी वाले या दुर्बल मन वाले मनुष्य बुद्धि के निवासस्थान हृदय को दूपित करके तथा मस्तिष्क तथा मनोवाहि स्रोतसो मे व्याप्त होकर मनुष्य के चित्त को भ्रान्तियुक्त करके उन्मत्त कर देते है । फलस्वरूप बुद्धि मे भ्रम होना, मन की चचलता, आँखो का चुराना, व्यर्थ इतस्ततः देखना, चित्त की अस्थिरता, सम्बद्ध आलाप ( वातचीत ), हृदय की शून्यता तथा यात्मज्ञान का अभाव प्रभृति लक्षण सामान्यतया मिलते है। इनमे आगन्तु उन्मादो का वर्णन भूतविद्या नामक पूर्व के अध्याय मे हो चुका है। अब दोपो से चतुर्विध उन्मादो की चिकित्सा का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। उन्मादो मे Acute Dehrnous Mania or Melecholia प्रभृति Insanity के लक्षण पाये जाते है। इनमे जिस रोगी का वल क्षीण हो गया हो, तथा जिसका मुख सदा ऊपर या नीचे की ओर ही १ मदयन्त्तुद्गता दोपा यस्मादुन्मार्गमागता.। मानसोऽयमतो व्यधिरुन्माद इति कीर्तितः ॥ (सु उ ६२) पञ्चोन्मादा वातपित्तकफसन्निपातागन्तुनिमित्ता । ( च सू १९.) विरुद्धदुष्टाशुचिभोजनानि प्रधर्पणं देवगुरुद्विजानाम् । उन्मादहेतुर्भयहर्षपूर्वो मनोविघातो विपमाञ्च चेष्टा ॥ तरल्पसत्त्वस्य मला. प्रदुष्टा बुद्धेनिवास हृदयं प्रदूष्य । स्त्रीतास्यधिष्ठाय मनोवहानि प्रमोहयत्याशु नरस्य चेत ॥ धीविभ्रम सत्त्वपरिप्लवश्च पर्याकुला दृष्टिरधीरता च । अवद्धवाक्त्व हृदयञ्च शून्य सामान्यमुन्मादगदस्य लिङ्गम् ॥ (च चि १४)
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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