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________________ चतुर्थ खण्ड : बाइसवॉ अध्याय ४२७ सात सात्त्विक अश से और छ राजस अग से युक्त व्यक्तित्वो का विविध नाम से आस्यान किया गया है । वैकारिक अवस्थावो मे इनके आधार पर ही किस सत्व का आवेश किसी व्यक्ति में हुआ है इसका विनिश्चय किया जा सकता है । ग्रहावेश या भूतावेश दो प्रकार के होते हैं-देव कोटि के या पिशाच कोटि के । अथवा महासत्त्व ( बलवान् ) तथा अल्पसत्त्व ( कमजोर ) । आयुर्वेद अथर्ववेद का एक उपाङ्ग है । अथर्ववेद मे भूतविद्या तथा मत्रचिकित्सा का प्रचुर वर्णन पाया जाता है। मंत्र - शास्त्र या मंत्र - चिकित्सा को सर्वोपरि स्थान चिकित्सा - विद्या मे दिया जाता है । इस कला की प्रशंसा करते हुए लिखा गया है कि सबसे सिद्ध वैद्य मात्रिक होता है । "सिद्धवैद्यस्तु मात्रिकः । " तात्विक दृष्टि से विचार किया जाय तो व्याधि या रोग दो प्रकार के हो सकते है । एक वे जिनका सम्बन्ध शरीर से हो, दूसरे वे जिनका सम्बन्ध मन से हो । शरीर में होनेवाले रोगो को व्याधि तथा मन मे होने वाले रोगो को आधि की मज्ञा दी जाती है । यद्यपि व्याधि और आधि के रूपो मे पर्याप्त भेद होता है तथापि वे पूर्णतया स्वतन्त्र नही है बल्कि परस्पर में अनुस्यूत है | शरीरगत व्याधियों के प्रभाव मन के ऊपर और मन मे होने वाले रोगो-आधियो का प्रभाव शरीर के ऊपर पडता है । कई वार तो ये आपस मे मिलकर ऐसा रूप धारण करते हैं कि उनका पार्थक्य करना भी कठिन हो जाता है । उत्पादक हेतुओ को दृष्टि से विचार किया जावे तो व्याधि या शरीरगत व्याधियों के उत्पन्न करने मे वात-पित्त-कफ दोप भाग लेते हैं और उनके परिणाम स्वरूप शरीरगत धातुओ में वैकारिक परिवर्तन होते ( Pathological changes ) हैं और उनके कारण विविध लक्षण पैदा होते हैं । परन्तु मनोगत व्याधियों मे रज और तम दो दोप उत्पादक हेतु बनते है और इनके परिणाम स्वरूप शरीरगत धातुओ मे वैकारिक परिवर्तन (No signs of Patholohgical changes in Body tissues ) के कोई चिह्न नही मिलते है फिर भी विविध प्रकार के लक्षण पैदा होते है । सम्भव है उनकी उत्पत्ति मे मस्तिष्क धातु मे कुछ वैकारिक परिवर्तन होते हो । अब चिकित्सा या उपचार पर विचार करें तो व्याधि की चिकित्सा मे युक्तिव्यपाश्रय ( Materialistic ) साधन बतलाये जाते है और आधियो की चिकित्सा प्राय आधिदैविक या दैवव्यपाश्रय चिकित्सा का प्रसंग आता है । आधियो का विचार किया जाय तो उनमे कुछ मद, मूर्च्छा, सन्यास, अपस्मार, उन्माद और अपतत्रक प्रभृति ऐसी व्याधियाँ है जिनका आधिभौतिक या युक्ति
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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