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________________ २७२ भिपकर्म-सिद्धि मात्रा और अनुपान सामान्य प्रयोग में २ से ४ रत्ती तक पर्पटियो की मात्रा प्रतिदिन लगातार डेढ मे दो मास तक करना चाहिये। विशेप प्रयोग मे जब पर्पटी का करप प्रयोग या वर्धमान प्रयोग चल रहा तो मात्रा एक रत्ती से प्रारभ करके, एक-एक रत्तो को मात्रा प्रतिदिन बढाते हुए अथवा दो दिनो के अतर मे प्रतिदिन बढ़ाते हुए दस से बारह रत्ती तक रोगी का बलादि देखकर देने का विधान है। फिर रोगी के अच्छा होने तक वही मात्रा देता रहे। अर्थात् जव दस्त बंद हो जाय, पाचन मुधर जाय, अग्नि दीप्न हो जाय, मात्रकूजन ( वायु के कारण ) शान्त होने लने तो प्रतिदिन या हर तीसरे दिन एक-एक रत्ती की मात्रा घटाकर एक रत्ती की मात्रा पर रोगी को लावै । कुछ दिनो तक यह मात्रा चलती रहे । रोगी स्वस्थ हो जाय तो औपध छुड़ा दे । दिन में एक ही खुराक में अधिक मात्रा की औपधिको (८रत्ती या १० रत्ती) न देकर दिन मे कई वार में विभाजित करके दो रत्ती से तीन रत्ती तक प्रति मात्रा देते हुए तीन या चार वार में देना उत्तम रहता है। सामान्यत वर्षमान पर्पटी कल्प प्रयोग मे ४० से ६० दिन लग जाते है। _ अनुपान-भुना जीरा का चूर्ण १॥ से ३ मागे और घी मे भुनी हीग : रत्ती मिलाकर दे । या भुना जीरे का चूर्ण और शहद के साथ दे। ऊपर से दूध, दादिम, छाछ, मोसम्मी मीठा नीवू या नारिकेल जल दे। उपयोग रसपपटी-सब प्रकार के पचन विकारो ( जाठराग्नि के दोपो) मे रमपर्पटी का उत्तम औपवि है, ग्रहणी, जीर्ण अतिसार, जीर्ण प्रवाहिका मोर अग्रिमाद्य मे इसके प्रयोग से विशेष लाभ होगा है। स्वर्ण पपटी-जाठराग्रि को दीप्त करने वाली, बलकारक और गरीर को पुष्ट करने वाली पर्पटी है ग्रहणी, सर्व प्रकार के क्षय रोग विगेपत. आत्र के क्षय में इससे विगेप लाभ होता है ।। लोह पपेटी-सूतिका रोग, प्लीहा, वृद्धि, यकृढद्वि, अग्निमाद्य, पाण्डु रोग अम्ल वित्त मीर उदरशूल मे विगेप लाभ पद होता है। मण्डूर पपटी-पाण्डु रोग, पीहा के रोग, गोथ, मन्दाग्मिन यकृद्दीवल्य मे विशेष लाभपद रहती है। गगन-पपटी-मदाग्नि, पाण्डु रोग, राजयदमा, खाँसी और श्वास युक्त ग्रहणी रोग में विगेप लाभप्रद होता है। विजय पर्पटी-कृच्छ्र साध्य ग्रहणी रोग, उपद्रव युक्त राज यक्ष्मा, पाण्डु रोग, प्लीहा के रोग, हृद्रोग, अम्लपित्त अथवा जीणं ज्वर युक्त ग्रहणी रोग में विजय पर्पटी एक उत्तम औपधि है। सुलभ हो तो इसी पपंटो का प्रयोग और
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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