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________________ चतुर्थ खण्ड :प्रथम अध्याय २०५ पच जाती है जिस रोगी को अम्ल लेने की इच्छा हो उसमे अनारदाना या आंवला मिलाकर उसे दे। ऐसे ज्वरी जिनमे दोनो पार्श्व भाग, वस्तिभाग एवं शिरमे शूल चल रहा हो दोनो से पडङ्ग परिभापा विधि से सिद्ध किये हुए जल से लाल साठी के चावलो की पेया बनाकर देना चाहिये। बहुत पित्त वाले या अतिसार वाले ज्वरी मे लाजपेया मे शु ठी और मधु मिलाकर पिलावे । ज्वरातिसार की अवस्था मे लाज-पेया को पृष्ठपर्णी, वला, विल्व, सोठ, नीलोत्पल एव धान्यक से सिद्ध करके देवे । हिक्का, श्वास एव कास होने पर पचमूल से सिद्ध लाजपेया को पिलावे । मलावरोध एव उदरशूल युक्त ज्वरी मे चविका, पिप्पलीमल, द्राक्षा, आंवला और मोठ में सिद्ध पेया पिलावे । ज्वर मे परिकर्तन जैसी पोडा होने पर वेर, वृक्षाम्ल, पश्निपर्णी, शालपर्णी और विल्व से सिद्ध पेया देवे । स्वेद एव निद्रा के न आने पर तृष्णायुक्त ज्वर के रोगी मे शर्करा, आंवला और सोठ से सिद्ध पेया पिलानी चाहिये । शर्करा, बेर, द्राक्षा, सारिवा, मुस्ता और चन्दन से सिद्ध पेया मधु के साथ तृष्णा, वमन, दाह और ज्वर का नाशक होती है। उपर्युक्त औषधियो से सिद्ध मण्ड, यूप, यवागू आदि पथ्य भी दिये जा सकते है। मण्ड, पेया, विलेपी और यवागू मे केवल बनाने का भेद मात्र है। कल्पना के भेट से जिसमे चावल के दाने न हो ऐसे सिद्ध चावल के द्रव भाग को मण्ड कहते है। जिसमे कुछ कुछ चावल के दाने हो उसे पेया कहते है । जिसमे अधिक चावलो के दाने हो उसे यवागू कहते है। जिसमे चावल के दाने अधिक और पानी बहुत कम हो उसे यवागू कहते है तथा जिसमे का जलाश विल्कुल सुखा दिया जाय उसे ओदन ( भात) कहते है। शाङ्गधर के मत से १ भाग चावल को पांच गुने जल मे पका कर ओदन बनाना चाहिये । विलेपी-चार गुने जल मे पका कर, मण्ड-चौदह गुने जल मे पकाकर, यवागू को पड्गुण जल मे पका कर, और अठारह गने जल मे पकाकर यूप बनाना चाहिये। इनमे क्रमशःयूप से मण्ड, मण्ड से पेया, पेया से विलेपी, विलेपी से यवागू और यवागूसे ओदन गुरु होता है। इनका प्रयोग क्रमश एक के बाद दूसरेका व्यवहार करना होता है। जब रोगी को प्रथम दिन यूष दिया पचने लगा तो दूसरे दिन मण्ड देना चाहिये। फिर यह भी पचने लगे तो तीसरे दिन पेया एव यवागू आदि का क्रमशः प्रयोग करना चाहिये । ज्वर के प्रारभिक सप्ताह में अन्नकाल मे यूष, पेया या यवागू का प्रयोग औपधि सिद्ध करके किया जा सकता है। मात्रा--जो मनुष्य जितना चावल खाता है उसका चौथाई परिमाण मे चावल लेकर उसका मण्ड या पेया बनाकर देना चाहिये । मण्ड, पेया, विलेपी.
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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