SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भिपक्कर्म-सिद्धि धर्माम्बु चानुपानार्थं तृपिताय प्रदापयेत् । मद्य वा मद्यसात्म्याय यथादोपं यथावलम् || (चरचि ३) स्वेदन - सभी ज्वरो मे विशेषत' सान्निपातिक ज्वर, उदर्द, पोनस, श्वास, जंघा - सधि एव अस्थिवेदना युक्त ज्वरो में, आमवात, वातिक तथा लैष्मिक ज्वरोमे स्वेदन कर्म प्रशस्त है । उष्ण जल का पिलाना, रोगी की शीत से रक्षा करना, उसको वस्त्रादि से आवृत करके रखना, और स्वेदल औपधियो के वाह्य एव आभ्यन्तर प्रयोग से स्वेदन का कार्य हो जाता है । इस क्रिया से स्वेद, मूत्र, मल और बात का निकलना चालू हो जाता है जिससे शरीर का हल्कापन, ज्वर के वेग का कम होना, अग्नि का जागृत होना प्रभृति लाभ होते है । इस काल मे स्वेदन विधि मे कहे गये आहार-विहारो का अनुपालन भी रोगी को करना चाहिये | स्वेदन कर्म का विशेष उपयोग वातश्लेष्मिक ज्वर तथा सान्निपातिक ज्वरो मे होता है— अस्तु उसी प्रमग मे इसका वर्णन विशेष रूप से होगा । पडङ्ग पानीय-ज्वरकाल मे रोगी को प्रचुर मात्रा में जल देना चाहिये । इससे शरीर का विप पर्याप्त मात्रा मे मूत्र के द्वारा निकल जाता है । जल के सम्वन्ध में ऊपर में उष्ण जल, शीतल जल या शृत शोत जलो के पिलाने के बारे में दोषानुसार विवेचन हो गया हैं । अव इस स्थान पर एक ऐसे सामान्य जल का प्रयोग वतलाया जा रहा है जिसका सामान्यतया सभी ज्वरों में उपयोग किया जा सकता है । इस ओपधिसिद्ध जल को पडङ्ग पानीय कहा जाता है । इसके बनाने मे मुस्त, पर्पट, उशीर, चदन, उदीच्य ( सुगधवाला ) और सोठ इन ओपधियो से जल की सिद्ध किया जाता है । इन ओपधियो का मिश्रित १ कर्प (२ तोले ) लेकर १२८ गुने जल में अर्थात् १ प्रस्थ ( २५६ तोला या ३६ सेर ) जल में किसी मिट्टी के वर्त्तन मे खौलाते है । पानी जल कर जब आवा शेष रहता है तो उसे चूल्हे से उतार कर शीतल कर लिया जाता है और एक शुद्ध पात्र में उसे सुरक्षित करके रख लेते है । ज्वर काल में तृपा प्रतीत होने पर रोगो को थोडा-थोडा पिलाते रहते हैं । इस जल को पीने के लिये अथवा पेया नोर यवागू आदि के बनाने में भी व्यवहार किया जा सकता है । इससे तृपा शान्त होती है, रोगी में हल्का स्वेद निकलता रहता है जिससे ज्वर का वेग कम रहता है | इस योग में गुठी के स्थान पर मृहीका ( मुनक्का ) का भी अवस्थानुसार उपयोग हो सकता है । २०२ १ सोदर्द पीनसश्वासे जङ्घापर्वास्थिशूलिनि । वातश्लेष्मात्मके स्वेद प्रशस्त. स प्रवर्त्तयेद् || स्वेदमूत्रशकृद्वातान् कुर्यादग्नेश्च पाटवम् ॥ ( वा चि. १ ) अष्टमेनाशगेपेण चतुर्थेनार्घकेन वा । अथवा ववथनेनैव सिद्धमुष्णोदक वदेत् ॥ 11
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy