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________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय १२१ . मायुर्वेद में कधित औषधियां जो विरेचन के नाम से व्यवहृत होती है उनमे कुछ तो अपने अगोपण के गुण के कारण, कुछ जल के शोपण को रोक कर, और कुछ आन्मो में क्षोभ पैदा करके तथा आन्न गति को बढा कर रेचन के कार्य में सफल होती है। उपयोग-विधि या कल्प :-( Administration) इन द्रव्यो को देह, दोप, दूज्य, प्रकृति, वय, वल, अग्नि, भक्ति, सात्म्य और रोग की अवस्ण प्रभृति वातो को ध्यान में रखते हुए इनके गन्ध, वर्ण, रन-आस्वाद को मेवन को अनुकूल बनाते हुए अथवा विविध तद्गुण औपधियो के सयोग करते हुए-विविध कल्पो कल्पना या बनावटो ( Preparations) में स्वरन, कल, कपाय, फाण्ट, चूर्ण जैसे बदर, पाडव, राग, लेह ( चटनी ), लड्डू उत्कारिका, तर्पण, पानक, पेय, शर्वत, मासरस (शोरवा), यूप आदि के रूप मे प्रयोग करना चाहिए । दोपानुसार कई अनुपानो के साथ या स्वतन्त्रतया भी उनका उपयोग सम्भव है जैसे वात विकारो मे तुपोदक-मैरेय-मेदक-धान्याम्ल ( काजी), फलाम्ल (फलरस ), दधि के अम्लो के साथ, पैत्तिक विकारो मे मुनक्का, आंवला, मधु, मुलेठी, परूपक (फरहद), फाणित ( राव ) और दूध आदि के साथ श्लैष्मिक विकारो मे मधु, गोमूत्र, कपाय प्रभृति द्रव्यो से प्रधान औपवि के ये सहायक मात्र होते है। इन उपायो से औषधि द्रव्य हृद्य और मनोन हो जाते है साथ ही अधिक गुणवान बन जाते है ।* (१) सयोग ( ममान वीर्य द्रव्यो के मिलने से अथवा विपरीत-गुणधर्म की - - * यद्धि येन प्रधानेन द्रव्य समुपसृज्यते, । तत्सज्ञक म योगो वै भवतीति विनिश्चय । फलादीना प्रधानाना गुणभूता सुरादय । ते हितान्यनुवर्त्तन्ते मनुजेन्द्रमिवेतरे । विरुद्धवीर्यमप्येपा प्रधानानामवाधकम् । अधिक तुल्यवीर्ये हि क्रियासामर्थ्य मिष्यते । भूयश्च पा वलाधान कार्य स्वरसभावनै । सुभावित ह्यल्पमपि द्रव्यं स्याद्वहकर्मकृत् । म्वरसैस्तुल्यवीर्यं तस्माद्रव्याणि भावयेत् । अल्पस्यापि महार्थत्वं प्रभूतस्याल्पकर्मतम् । कुर्यात् सयोगविश्लेपकालसस्कारयुक्तिभिः । (च. क १२)
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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