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________________ ११२ भिपकम-सिद्धि कोष्ठ स्वेद पाहते है। उनके लिए एक सोज, की या वाट्यगना न ष्ट चार प्रकार के हो गकते है.---जल कोर, और गोट, नौर । व्यक्ति की व्याधि और मागित बगा के अनमार नगा ना माति, इमी का दूगरा नाम अवगाहन स्वर भी है। यह प्रसारमा Tuy thatly है। कोष्ट में उष्ण गवाथ, क्षीर, नेल गा पा नगर उ गेगी। कागाना स्नान कराया जाता है। ४ उपनाह-स्वेट:- यह एक प्रकार आणि जो या गेहूँ ती दलिया या आटा लेकार, अन्नवो मिटर बोज, मेन्धानमक और कोई म्नेर मिलार या जीवनी, मातीमोगली. कुष्ठ, गव द्रव्यो के तेल में मिलाकर उब बन्छी र गे पागनि गर्म करते विकार-युत गल पर लेप करके अपर बिना नार, ति लोग चर्म ने ऊपर में वाय देना चाहिए। यदि ऐगा न मिल पा भी गर्मा मूलभ न हो तो वोपेय वाया कम्बला मेवापना मागितामनिया अण्डी या मित्क के वस्त्र को कहते है। उपनाह स्वेद के सम्बन्ध में या ध्यान रखना चाहिए काना हुमा उपनाह दिन में गोल दे और दिन के बाधे उपनाह ले गति में गोर। क्यो कि इससे अधिक काल तक बधन के पटे रहने से विदाह या गंन्याभन रहता है जिसमे रोगी के मनिष्ट की गभावना बनी रहती। ५ प्रस्तर-स्वेद .-'प्रस्तीर्यते ति अन्तर.' वंदन गोकानुगे या आरती के लोने लायक प्रमाण में फैला कर ( विस्तीर्ण कर) पुन उन पर व्यक्ति का स्वेदन करना प्रस्तरम्वेद कहलाता है। रा पार्य मे एक और गिम्बी धान्य के पत्तो के फैलाए हुए स्थान पर अण्डी और भेट कम्बल विम्नीणं प्रच्छद पर अथवा एरण्ड और अर्क पत्र के प्रन्छद पर खूब अच्छी तन्ह में व्यक्ति के शरीर पर तेल की मालीश कराके उमी पर मुला कर स्वेदन परना प्रारम्वेद कहलोता है। इसके लिये आदमी के कद की एक गिला बनाकर उनको तप्त करके फिर उसके ऊपर पत्तियो को विछा कर युक्ति पूर्वक लेटा कर न्येदन करना होता है। ६ परिपेक-स्वेद :-बातोत्तर श्लेमिक रोगों में या बाय के रोगो मे मूलकादि जो वातघ्न द्रव्य ऊपर में बतलाए जा चुके है उनको पानी में उवाल ले। पुन इस उवाले जल जो किंचित् उप्ण हो अर्थात् बग्दाश्त के योग्य उम तापक्रम में लेकर किसी सहस्रवार वाले घटे में या अनेक छिद्र नाडी युक्त वर्तन मे ( हजारा में) भर कर रोगी को वरम से अच्छादित कर उस जल को
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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