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________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय ६५ विशुद्ध रासायनिक दृष्टि से विचार-जितने भी स्नेह है चाहे वे वानस्पतिक हो या जान्तव, वे सभी उच्च कोटि के वसाम्ल के माधुरी है (glycerides of high fatty acids ) इनमे प्राङ्गार के अणु ( carbon atoms ) पाये जाते है । वानस्पतिक स्नेहो मे निम्न प्रकार के माधरी (glycerides ) पाये जाते है परन्तु जान्तव स्नेहो मे घत, वसा, मज्जा मे सामान्य माधुरी ( simple glycerides ) प्रधानतया या प्रधान रूप से मिलते है । वसा तथा तैल मे कोई विशेष अन्तर नही है वसा अपेक्षाकृत कडी होती है और २०° पर आमतौर से पिघलती है। तैलो मे २०°c से नीचे तापक्रम मे हो पिघलने का गुण होता है। इस आधार पर भारतीय नारिकेल तेल ग्रीष्म ऋतु मे तो तैल रहता है परन्तु शीतऋतु मे वसा का रूप धारण कर लेता है। महास्नेह-स्थावर और जगम सृष्टि ( animal, vegetabel kingdom) से उत्पन्न तैल और घृत, वसा और मज्जा के मिश्रणो के मुख से प्रयोग की भी परिपाटी है। इन मिश्रणो की कई सज्ञाये प्रचलित है। जैसे दो स्नेहो के मिलने से यमक, तीन स्नेहो के मिलने से त्रिवृत तथा चार स्नेहो के मिश्रण से महास्नेह कहा जाता है। वनस्पति घत-स्थावर सृष्टि के तैलो से आज के वैज्ञानिक युग मे एक प्रकार का कृत्रिम घृत वहुत प्रचलित हो रहा है, जिसे वनस्पति घृत कहते है। इनके कई नामो ( जैसे दालदा, वनसदा, कोटोजम आदि ) से विज्ञापन और प्रचार वटता जा रहा है। ये देखने मे तो घृतसदृश परन्तु सेवन के अनन्तर तैलसदृश गुण के होते है। प्राचीन परिभापा के अनुसार इनको तैल के वर्ग में रखा जाय या घृत के, यह एक समस्या है। लोकव्यवहार मे तो यह घृत का स्थानापन्न पदार्थ ही माना जाता है। वास्तव मे इन कृत्रिम घृतो का आरभक द्रव्य वानस्पतिक तैल है अस्तु ये एक प्रकार से विशोधित और जमाये हए तैल ही है। धृत की समानता गुणो के विचार से ये नही प्राप्त कर सकते है। कारण यह है कि १ प्राचीन ग्रन्थो के आधार पर घृत को सर्वोत्तम स्नेह माना गया है, परन्तु यह हीन है क्योकि कृत्रिम घृतो से श्रेष्ठ भी घृत मिल सकते है, २ अन्य स्नेहो की अपेक्षा अधिक मधुर और अविदाही होना घृत का विशेष गुण है, परन्तु वनस्पति घृत विदाही होते है, ३ सस्कारनुवर्त्तन मे अर्थात् औषवियो को डालकर पकाने से उन औषधियो के गुणो का ग्रहण करना भी इन कृत्रिम घृतो मे शुद्ध घृत के सदृश नही होता, ४ शुद्ध घृत पित्त का शमन करता है, परन्तु कृत्रिम घृतो से इसके विपरीत पित्त की वृद्धि होती है,
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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