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________________ द्वितीय अध्याय प्राधान्यं पुनर्दोषाणां तरतमाभ्यामुपलभ्यते तत्र द्वयोस्तरस्त्रिषु तम इति । (च नि१ स्वतन्त्रो व्यक्तलिङ्गो यथोक्तसमुत्थानोपशमो भवत्यनुबन्ध्यः, तद् विपरीतलक्षणस्त्वनुवन्धः। ( चरक) अनुवन्ध्यःप्रधानम् अनुवन्धोऽप्रधानम् । ( विजयरक्षित.) इस तरह ज्वर, अतिमार, पाण्डु आदि द्वन्द्वज या त्रिदोषज रोगो मे जिस दोप की प्रधानता होगी, प्राधान्य सम्प्राप्ति भी उसी के नाम से व्यवहृत होगी। चिकित्ला मे उपक्रम का निर्धारण भी उसी के आधार पर किया जावेगा। प्राधान्य के विपरीत अप्राधान्य सम्प्राप्ति होती है। वलसम्प्राप्ति-निदान, पूर्वरुप ओर रूपो की सम्पूर्णता या अल्पता के आधार पर वलावल का ज्ञान जिससे होता है उसे बलरूप सम्प्राप्ति कहते है । अर्थात् हेतु, पूर्वस्प और रूप की अधिकता वाली व्याधि को सवल तथा हेत्वादि की अल्पता रहने से व्याधि को निर्वल समझना चाहिये। कालसम्प्राप्ति-जिस सम्प्राप्ति के द्वारा दोपानुसार रात्रि, दिन, ऋतु एवं भोजन के पाक के साथ ज्याधि को वृद्धि या ह्रास निर्धारण होता है उसे फाल सम्प्राप्ति कहते है। वलकालविशेषःपुनाधीनामृत्वहोरात्रकालविधिविनियतोभवति । (च नि १) अव सम्प्राप्ति के पाँच प्रकारो का विशद वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है संख्यासम्प्राप्ति-विविध दोप एव आगन्तुक कारणो से ज्वर आठ प्रकार का होता है। वात-पित्त-कफ से स्वतत्र तीन, वातपित्त, पित्तकफ एव कफवात से द्वन्द्वज तीन, तीनो से मिश्रित सन्निपातज एक तथा आगन्तुक एक कुल मिलाकर आठ होते है । सन्निपातज ज्वर एक होते हुए वृद्ध दोपो के विचार से सन्निपात के १३ भेद हो जाते है द्वयुल्वणकोल्बणैः पट् स्युहीनमध्यादिकैश्च पट् । समश्चैको विकारास्ते सन्निपातास्त्रयोदश ।। (च सू १७) वात वृद्ध पित्त-कफ वृद्धतर । द्वयुल्वण-र पित्त वृद्ध कफ-वात वृद्धतर। { कफ वृद्ध वात-पित्त वृद्धतर । (वात-पित्त वृद्ध कफ वृद्धतर । एकोल्बण-पित्त-कफ वृद्ध वात वृद्धतर। (कफ-वात वृद्ध पित्त वृद्धतर ।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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