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________________ ५८ भिपाम-सिद्धि जानार्थ यानि चौतानि व्याधिलिलानि संत्र। व्याधयन्ते तदात्वे तु लिमानोष्टानि नामयाः ।। वस्तुत रोग और लक्षण में बहुत बोटा मानन रोग में ना लक्षण हुआ करते है अर्गत् प्रत्येक रोग अनेक लोमा नारा उस नमूह में 0-2क लक्षण बनेक रोगो में मिल पाता लनणों का नमूर अन्य रोगो में नहीं मिल नाना । आ पसमा मे बहुत-मी व्याधिया है जिनमें एकही क्षण ताकि व्याधियां मानी जाती है। लिङ्गं चैकमनेकस्य नर्थवजन्य लश्यते । बहन्यक्रम्य च व्याधेवेदनात वहनि च।। विपमारम्भ मूलाना लिङ्गक ज्वरी मनः ।। (च) भेद-तप के दो भेद होते हैं-गण (Symptoms ) नित (Signs), लक्षणो को रोगी ने पसर जाना जाता है अन्येि पर प्रत्ययनेय (Subjective) कर्तृत्व-बोयर यहा जाता है। चितों को रोगी के देखने, पर्श करने मादि क्रियाओं में प्रत्यक्ष देगा जाना है। अम्नु उन्हें स्वप्रत्ययजेय ( Objective ) फर्मत्व-बोधक कहा जाता है। रोगी से पूछकर नातव्य लक्षण-भूष, प्यान, वात-मूत्र मल, प्रवृत्ति, श्वास को तथा निन्द्रा की स्थिति आदि । रोगी को देखकर जानने योग्य चिह्न-वस की गति, गोय, वर्णवैपरीत्य, अप्राकृत गति, मल-बाटि का वर्ण, गठन, मृदुत, कांगता, ताप नाडी, गति, हृदय एव फुफ्कुल ध्वनि प्रभृति । उपशय-लक्षण ( Definition of Therapeutic Test or Therapy ) निरुक्ति हेतुव्याधिविपर्यस्तविपर्यस्तार्यकारिणाम् । १ औपधाविहाराणामुपयोग सुखावहम् ।। विद्यादुपशयं व्याधेः। (वा ति १) २ उपशयः पुनः हेतुव्याधिविपरीताना विपरीतार्थकारिणां चौपधाहारविहाराणामुपयोग सुखानुबन्धः इति । (चक्र )
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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