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________________ द्वितीय अध्याय देने वाली व्याधि है। आतङ्क का अर्थ कष्ट का जीवन, यक्ष्मा शब्द से रोग युक्त विकार, ज्वर शब्द से मन -शरीरसतापकरत्व, विकार से शरीर एव मन का अन्यथाकरण, रोग शब्द से रुजाकतृत्व तथा गद से सामान्य असुख का बोध होता है। अग्रेजी भापा मे रोग को ( Disease ) कहते है--यह भी सक्षेप मे एक असुख का ही वोधक है। शरीर मे या मन मे यह असुख का भाव जिस शारीरिक या मानसिक विकृति के कारण होता है उसको रोग कहते है। इस प्रकार रोग और उसमे पैदा होने वाले असुख मे भेद हो जाता है। असुख का अनुभव रोग का परिणाम है रोग नही । फलत रोग उससे भिन्न वस्तु है । लक्षण या रूप स्वयं रोग न होकर विकार या रोग के निदर्शक है । ___ इसीलिये विजयरक्षित ने विशिष्ट प्रकार से दूषित दोष एव दूष्य के विशिष्ट सयोग को ही व्याधि माना है, लक्षण-समूह को नही । अरुचि आदि लक्षण व्याधि के कार्य है, व्याधि का स्वरूप नही 'तथापि दोषदृष्यसम्र्मूर्च्छनाविशेषो ज्वरादिरूपो व्याधि तस्य कार्याण्यरुच्यादय ।' वस्तुत रोग एव लक्षण मे इतना ही अन्तर है-कि लक्षण एक होता है और रोग लक्षणो का समुदाय । यदि लक्षण-समूह को ही व्याधि मान लिया जावे तो भी कोई दोष नही आता। लक्षण-समूह और व्याधि की उपमा समुदाय एव समुदायी, जाति एव व्यक्ति, अवयव एव अयवयी के अन्तर से दी जा सकती है, जैसे कहा जाय 'खदिर वृक्षो का वन' राहु का शिर या शिला-पुत्र का शरीर । यद्यपि इनमे कोई बडा अन्तर नही है फिर भी व्यवहार में इनमे पष्ठी कारक के चिह्न 'का' द्वारा भेद माना जाता है । अत समुदाय से समुदायी को पृथक् मानकर लक्षणो से व्याधि को पृथक् मानना भी उचित है। न्याय दर्शनकार ने अवयवो से पृथक् अवयवी को सिद्ध किया है। और समुदाय तथा समुदायी मे वास्तविक भेद बतलाया है केवल भेद की विवक्षा मात्र नही । सर्वाग्रहणमवयवसिद्धे न्याय दर्शन धारणा कर्पणोपपत्तेश्च । २।१ । ३४, ३५ चरक मे भी उक्ति मिलती हैजिन लक्षणो का उल्लेख किसी विशिष्ट रोग के ज्ञापनार्थ होता है उन्ह उस अवस्था मे लक्षण ही मानना चाहिये जैसे ज्वर रोग भी है, परन्तु कास एव रक्तपित्त आदि के साथ संयुक्त होकर राजयक्ष्मा का एक लक्षण है।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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