SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मक्खलिगोशाल, मौलायन प्रभृति शेष शिष्य । [ ३२५ 1 हो, दूसरो के कार्योंके परिणामरूप हो अथवा मानवी प्रयत्नों का नतीजा हो । उनका प्रार्दुभाव न वीर्यसे और न प्रयत्न से होता है । तथापि न मानुषिक त्यागसे और न मानुषिक शक्तिसे प्रत्येक सत्तात्मक प्राणी, प्रत्येक कीड़ा, मकोडा, प्रत्येक जीवित पदार्थ चाहे वह पशु हो अथवा वनस्पति; वह सब आतरिक ( Intrinsic ) शक्ति, वीर्य और ताकतसे रहित है, किन्तु अपने परिणामाधीन आवश्यक्तामें फॅसा हुआ वह छह प्रकार के जीवनोंमें सुखदु भुगतता है । इस तरह संसार में परिणामाधीन भटकता हुआ व्यक्ति चाहे वह मूर्ख हो अथवा पंडित हो नियत महाकल्पोंके उपरान्त समान रीतिसे दुःखका अन्त करता है ।" मूर्ख अथवा पडितको समान रीतिसे मोक्ष लाभ करते बतलाना, इस बातका द्योतक है कि मक्ख लिगोशाल मोक्ष प्राप्तिके लिये ज्ञानको आवश्यक नहीं मानता था। अतएव इस कथनसे परिच्छेदके प्रारम्भमे दी हुई गाथाओ का समर्थन होता है, जिनका भाव वही है, जो हम ऊपर बता चुके हैं। यहां जैनाचार्यने गोशालके मंतव्य ठीक वही बताये है, जो बौद्धोंके उक्त उद्धरणमे निर्दिष्ट किये गये हैं । इसी प्रकार श्वेतांबर जैनोके 'सूत्रकृतांग' में भी गोशालकी गणना अज्ञानवादमें की गई है । साथ ही पाणिनि भी मक्खलिगोशालका मत इसी तरहका प्रतिपादित करता है । पाणिनिसूत्रमें कहा गया है कि - मक्खलि कहता था - कर्म मत करो, शांति वाछनीय है।' भाव यही है कि कुछ 3 १- इसमें स्पष्टतः अक्रियावादको स्वीकार किया गया हैं, जिसका भाव यही है कि कुछ मत करो, स्वच्छन्द रहो, शून्यतामें मत्त बनो ! जैसे दिगम्बर शास्त्रकारका कथन है । २ - सूत्रकृताग २ - १ - ३४५ । ३ - आजीविक्स भाग १ पृ० १२ ।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy