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________________ मक्खलिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिष्य । [ ३२३ अण्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयउ माणोहु । देवो अ णत्थिं कोई मुण्णंझाएह इच्छाए ॥ १७९ ॥" श्री दर्शनसार। अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर सर्वज्ञपदको प्राप्त कर चुके थे ! केवलज्ञान सूर्यका प्रखर उदय उनके निकट हो चुका था ! देवोंने आकर उस समयपर हर्षित भावसे आनन्दोत्सव मना करके और सभामण्डप रचकर उस अवसरकी दिव्यशोभाको और भी अधिक • बढ़ा दिया था ! भगवान महावीर गंधकुटीमें अष्ट प्रातिहार्यसहित अन्तरीक्ष विराजमान थे, परन्तु तो भी उनकी वाणी नहीं खिरी । देवेन्द्र आदि तृषित चातकोंके एकटक निहारते रहनेपर भी भगवान द्वारा धर्मामृतकी वर्षा न हई ! देवेन्द्र आश्चर्यमें पड़ गया, उसने अपने विशिष्ट अवधिज्ञानके बल जान लिया कि भगवानके दिव्यो'पदेशको अब धारण करनेवाला योग्य व्यक्ति यहां मौजूद नहीं है। • इसीलिये वह रानगृहके इन्द्रभृति गौतम नामक वदेपारांगत विद्वा. ‘नको वहां लिवालाया और वह भव्य ब्राह्मण भगवानकी शरणमें “प्राप्त होकर आतुर धर्मात्मा-चातकोंको भगवानकी दिव्यध्वनिसे धर्मपीयूष पिलानेमें सहायक हुये । किन्तु इसी समय भगवानके समवशरणमें श्री पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरम्पराका मक्खलि अथवा “मश्करि गोशाल नामक एक वर्यप्राप्त ऋषि मौजूद था । उसे इस घटनासे बड़ा रोष आया। वह फौरन ही समवशरणसे उठकर चल दिया और बाहर निकलकर कहने लगा कि 'देखो कैसे आश्चर्यकी बात है कि मैं ग्यारह अंगका ज्ञाता हूं तो भी दिव्यध्वनि नहीं हुई ! पर जो जिनकथित श्रुतको ही नहीं मानता है, जिसने अभी
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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