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________________ ३०२ ] भगवान् पार्श्वनाथ | उसकी मानता थी, वह भी भगवान् पार्श्वनाथके उपदेशसे सहशता रखती है । उसका मत था कि 'असत्तामें से कुछ भी उत्पन्न नही होता और जो है उसका नाश नहीं होता ।' भगवान पाइर्दनाथने भी लोकके पदार्थोश ऐसा ही स्वरूप बतलाया था, जिसको उनके उपरान्त कात्यायन विकृतरूप देता प्रतीत होता है । इन्हीं तत्वोके अनुरूप उसने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सुख, दुख और जीव यह सात तत्व स्वीकार किये थे ।" वह इन्हीं सातके मिलने और विछुडनेसे जीवन व्यवहार मानता था । तत्वोंकी संख्या ठीक सात मानना भी उस समय भगवान् पार्श्वनाथके बताए हुये सात तत्वोकी प्रधानताका ही द्योतक है, वरन् उनकी ठीक सात सख्या मानना आवश्यक न थी । इन तत्वोका मिलन वह सुखतत्वके कारण और विच्छेद दुखतत्वके हेतुसे बतलाता था । इस अवस्थामें वह इनका पारस्परिक प्रभाव एक दूसरेपर पड़ता स्वीकार नहीं करता था, जिससे किसी व्यक्तिको खास नुकसान पहुचाना भी मुश्किल था ! इसलिये उसके निकट किसी जीवको मारना कुछ विशेष महत्व न रखकर केवल व्यवस्थित तत्वोको अलग कर देना था; जिसमे पाप-पुण्यका भय ही नहीं था । सचमुच प्रतरदन, नचिकेतसद् और पूर्ण काश्यपका भी ऐसा ही विश्वास था । भगचद्गीता में भी यह भाव प्रगट किया गया है । आत्माको अमर मानते हुये उसके मूल भावमें यह उद्गार कहे प्रतीत होते है, पर 3 १ – सूत्रकृताङ्ग २।१।२२ । २ - जैनसूत्र ( S. B. E ) भाग २ भूमिका XXIV. ३- प्री० बुद्धि० इन्डि० फिल० पृ० २८६ ॥ ४-गीता २1१६-२४ ।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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