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________________ २८२ ] भगवान पार्श्वनाथ | और आत्मकल्याण कर सक्ता है । यही मुनिराज अपने प्रखर आत्मध्यानके बलसे अन्त में त्रिलोक्यपूज्य और सच्चिदानन्दरूप साक्षाद परमात्मा होजाते है, यह ऊपर बताया ही जाचुका है । सप्तारके इन्द्रायण फलके समान विषयभोगोंमे फंसे हुये जीवोंके लिए यह सुगम नहीं होता है कि वह एकदम अपनी प्रवृत्तिको बदल दें इसीलिये भगवानने एक नियमित ढंगसे क्रमकर अपनी प्रवृत्तिको वदलना आवश्यक बतलाया था । शास्वत सुख प्राप्त करनेके लिये सात्विक मनोवृत्तिको उत्पन्न करना प्रारम्भमें जरूरी होता है । उसी अनुरूप भगवान के धर्मोपदेशमें मांस, मधु, मदिरा आदि पदार्थो को ग्रहण न करनेकी मनाई थी । यह अखाद्य पदार्थ थे । प्राणियों के प्राणोकी हिंसा करके यह मिल सक्ते हैं । और कोई भी 1 प्राणी अपने प्राणोंको छोड़ना नहीं चाहता है । सबको ही अपने प्राण प्रिय है । इसलिये मासको ग्रहण करना प्राकृत अयुक्त ठहरता हैं । इस नियमको ग्रहण करते ही प्राणी साम्यभावके महत्त्वको समझ जाता है । वह जान लेता है कि जिसतरह मुझे अपने प्राण, अपना धन, अपने बंधु प्रिय हैं, वैसे ही दूसरोंको भी वह प्रिय हैं। इस अवस्था में वह विश्व नेमका पाठ खत. हृदयंगम कर लेता है और अपना जीवन ऐसा सर्व हितमई बना लेता है कि उसके द्वारा सबकी भलाई होती है । फिर वह उत्तरोत्तर अपने समताभावको चढ़ाता जाता है और सांसारिक वस्तुओ से ममत्व घटाकर अपने आत्मा के व्यानमें लीन होनेका प्रयत्न करता रहता है । इसके लिये वह नियमित त्याग और संयमका पालन करता है । संसारके कोलाहलसे दूर रहकर तपश्चरणका अभ्यास करता है । जिस तरह ग्रह -
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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