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________________ २७८ ] भगवान् पार्श्वनाथ | नियमितरूपमें भोजनके समय आमंत्रित करके शुद्ध आहार देते हैं उन्हींके यहां वह आहार ग्रहण करते हैं । इन ग्यारह प्रतिमाओं में - क्रमशः त्यागभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया है और आखिर में उस -श्रावकका जीवन एक साधुके समान ही करीब २ होगया है । यहांतक स्त्रियें भी इस चारित्रको धारण करसक्ती हैं, परन्तु वह अपनी प्राकृत लज्जाके कारण वस्त्रत्यागकर निर्बंध अवस्थाको धारण नहीं कर पातीं हैं। इस पांचवे गुणस्थान तक जीवात्मा इन ग्यारह प्रतिमाओं रूप ही अपना आचरण बनासक्ता है। पूर्ण रीतिसे वह अहिंसादि व्रतों का पालन नहीं करसक्ता है । निग्रंथ मुनि ही पूर्ण - - रीति से इन व्रतों का पालन करते हैं । ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान में यद्यपि पुरुष दिगंबर मुनि हो जाता है और सर्व प्रकारके परिग्रहको त्याग देता है, परन्तु तो भी उसके परिणाम शरीरकी ममता में कदाचित् झुक जाते हैं । यह प्रमत्तभाव है अर्थात् व्यानकी एकाग्रतामें लापरबाई या कोताई है। यहासे सब गुणस्थान निग्रंथ मुनि अवस्था के ही हैं । ७- अप्रमत्तविरत-गुणस्थान में प्रमत्तभाव को छोडकर मुनि 'पूर्णरूपसे महाव्रतोंको पालन करता है और धर्मध्यानमें लीन रहता है | यहासे आत्मोन्नतिका मार्ग दो श्रेणियोंमें बॅट जाता है- (१) उपगमश्रेणी, जिसमें चारित्र मोहनीय कर्मका उपशम हो जाता है और (२) क्षपकश्रेणी, जिसमें इस कर्मका बिल्कुल नाग होजाता है । यही मोक्षका आवश्यक मार्ग है, चारित्र मोहनीय कर्मके उदय से जीवात्मा के सम्यकृचारित्र प्रगट होनेमें बाघा उपस्थित रहती है । इसका नाश होने ही सम्यच्चारित्रका पूर्णतामे पालन होने लगता
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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