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________________ [ १२१ कुमारजीवन और तापस समागम । था एवं उसमें इन्द्रके मनोहर करकमलोकी विंव पड़ती रहती थी अर्थात् सदा उसकी सेवा इन्द्र किया करता था ।' 9 इसप्रकार अपूर्व सौन्दर्य के आगार भगवान पार्श्वनाथ कुमार अवस्थाको प्राप्त हुये ! क्रमकर उनके नीलवर्णमई नौ हाथ ऊंचे शरीरमें यौवन के चिन्ह प्रकट हुये । वे भगवान शीघ्र ही युवाव-स्थाको प्राप्त होगये, किन्तु यहांपर हमे भगवानकी शिक्षा-दीक्षाके सम्बंध में कुछ अधिक विचार कर लेना चाहिये । मानवताका जो महत्व है उसे देख लेना हमे इष्ट है । मनुष्य होकर हमें अपने पूज्य तीर्थंकर भगवान के दर्शन मनुष्यरूपमें करनेकी लालसा करना -स्वाभाविक है । किन्तु हत्भाग्य से वह इतने प्राचीनकालमे हुये हैं कि जिसका इतिहास पूर्णत ज्ञात नही है और जिससे उनके विषयमें कुछ अधिक स्पष्ट रीतिसे कहा नहीं जासक्ता है। जो कुछ जैन शास्त्रों में उनके बाल्य और कौमार कालोंका विवरण मिलता है उनसे यही ज्ञात होता है कि भगवान नन्हीं आवस्था से ही धार्मिक रुचिको धारण करनेवाले और नीतिमार्गका पालन करनेवाले व्रती श्रावक थे । वह इस छोटी अवस्था में ही हमारे सामने एक अनुकरणीय आदर्शके रूपमे नजर आते हैं परन्तु यह ज्ञात नहीं है कि उनकी शिक्षा किस प्रकार हुई थी । जैन शास्त्र तो कहते हैं कि वह जन्मकाल से ही मति, श्रुति, अवधिज्ञान कर संयुक्त थे, और इस तरह वे एक पूर्वनिर्मित मूर्तिकी भांति ही हमारे अगाड़ी रक्खे गये प्रतीत होते हैं । परन्तु यदि हम विशेष पुण्य प्रकृतिके अतुल प्रभावको ध्यान में रक्खें तो इस प्रकार उनका जन्मसे ही विशिष्टज्ञानी होना कुछ 7- पार्श्वनाथ चरित पृ० ३६४ ।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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