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________________ तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [८३ इनके साथ ही याज्ञवल्क्यकी प्रधानता रही थी। कहा जाता है कि यह बौद्धकालसे बहुत ज्यादा पहले नहीं हुये थे । इनका 'नेति नेति' धर्म विख्यात् है । इन्हीके कारण राजा जनकका नाम चिरस्थाई होगया है। याज्ञवल्क्यके निकट आत्म काम (Self-love) ही मुख्य था । इसहीको उनने शेष कामो (Love) का उद्गमस्थान माना था। इसका प्रारंभ अपने आत्म-रक्षाके भावसे होकर परमात्माके प्रेममें अंतको पहुंचता है । दाम्पत्य प्रेम, सतानप्रेम, धन, पशु, जाति, देवता, धर्म आदि प्रेम सब ही विविध अशोमें आत्म-काम (Self-love) ही हैं । इनका संबंध भी परमात्मासे है क्योंकि जब.... हम अपने व्यक्तित्वसे प्रेम करेंगे तो परमात्मासे भी करेंगे, यह उनका कहना था । इसी लिए उन्होने इच्छा ( Desiring ) को बुरा न माना था-फिर चाहे पुत्रो-सम्पति या ब्राह्मणकी ही वाञ्छ। क्यों न की जाय ! इसतरह इनने भी प्राचीन वैदिक मार्गका एक तरहसे समर्थन करना ही ठीक माना था । त्याग अवस्थामें भी स्त्री, पुत्र, धन, सम्पत्ति आदि उपभोगकी वस्तुओको बुरा नहीं बतलाया था। सचमुच उपरान्तके इन ऋषियों द्वारा यद्यपि वेदोंके विरुद्ध भी आवाज उठाई गई थी, परन्तु वे उसके मूलभावके खिलाफ नहीं गए थे। आत्म-ज्ञानको विविध रीतियोंसे प्राप्त करनेका प्रयत्न इनमें जारी होगया था। परिणाम इसका यह हुआ कि अन्ततः वेद और वैदिक क्रियाकाण्डको लोग बिल्कुल ही हेय दृष्टिसे देखने लगे । उनको अविद्या और नीचे दर्जेका ज्ञान समझने लगे। पर यह सब हुआ तब ही जब जैन तीर्थंकरो-श्रमधा १-पूर्व० पू० १५३-१८० । २-पूर्व० पृ० १९३ ।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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