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________________ भी तरह नही बनता है। भाव यह है कि वैदिक दर्शन का यह मन्तव्य कि व्यक्ति की अपेक्षा से ईश्वर अनादि है, जैनदर्शन को मान्य नहीं है, और यह किसी भी तरह सगत भी नही ठहरता है। क्योकि परमात्मा शब्द मे जो परम शब्द है, यही उसकी अनादिता का स्पष्ट रूप से विरोध कर रहा है। देखिए, परमात्मा मे परम और आत्मा यह दो शब्द है। आत्मा शब्द सामान्यतया चैतन्यविशिष्ट पदार्थ का बोधक है और परम शब्द उस की विशिष्टता का, महत्ता का ससूचक है । सामान्य आत्माओ से अपेक्षाकृत विलक्षणता को प्रकट करने वाला परम शब्द आत्मा के साथ जुड़ जाने से परमात्मा का स्थान सर्वोपरि बन जाता है, किन्तु सामान्य आत्मा और उस परमात्मा मे जो अपेक्षा-कृत विलक्षणता है, वह केवल निष्कर्मता को ले कर है । सामान्य आत्मा और परमात्मा मे केवल कर्म का ही अन्तर रहता है । इसीलिए कहा है सिद्धा जैसा जीव है, जीव सोय सिद्ध होय । कर्म मैल का अन्तरा, बुझे विरला केय ॥ तत्त्वार्थ सूत्र मे आचार्य-प्रवर श्री उमास्वाति ने लिखा है कि-कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष.-, अर्थात् सम्पूर्ण कर्मो का आत्यन्तिक क्षय ही मोक्ष है, परमात्मस्वरूप है । इस परमात्मस्वरूप को निष्कर्मता के द्वारा कोई भी जीव प्राप्त कर सकता है। निष्कर्मता प्राप्त किए बिना कोई भी आत्मा परमात्मा नही वन सकता। निष्कर्मता की प्राप्ति का प्रयास सकर्मा व्यक्ति ही किया करता है। इसलिए परमात्मा बनने वाले को सर्वप्रथम अहिंसा, सयम ओर
SR No.010169
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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