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________________ (९८) लिए जैन दर्शन एक ईश्वर न मानकर अनन्त ईश्वर मानता है। ईश्वर अनादि नही है r वैदिक दर्शन ईश्वर एक मानता है और उसे अनादि बतलाता है । इस लोक मे जो दर्जा एक स्वतंत्र सम्राट् का होता है, वही परलोक मे ईश्वर या परमेश्वर का स्वीकार करता है । जैसे किसी राज- वश मे जन्म लेने वाले व्यक्तियो को सम्राट् पद अनायास प्राप्त हो जाता है, उसके लिए उन्हे कुछ भी प्रयत्न नही करना पडता है, वैसे ही वह ईश्वर भी अनादिकाल से ससार के कारणभूत क्लेश, कर्म, कर्म-फल और वासनाओ से अछूता है, कर्म आदि का विनाश कर देने से उसे ईश्वर पद प्राप्त नही हुआ है किन्तु वह उनसे सदा से सर्वथा रहित है । उसका ऐश्वर्य भी अविनाशी है । काल के लम्बे हाथ वहा तक नही जा सकते, इसी लिए वह सब से बडा है, सब का गुरु है, सब का ज्ञाता है । जो ससारी जीव अहिंसा, सयम और तप की पवित्र साधना द्वारा अपने समस्त कर्मों को नष्ट करके मुक्त होते है वे भी कभी उसके बराबर नही हो सकते । वैदिक दर्शन ऐसे अनादि अनन्त पुरुष - विशेष को ईश्वर के नाम से व्यवहृत करता है किन्तु जैन दर्शन मे इस प्रकार के ईश्वर के लिए कोई स्थान नही है । जैन दर्शन का विश्वास है - नास्पृष्ट. कर्मभि शश्वद् विश्वदृश्वास्ति कश्चन । सर्वथाऽनुपपत्तित तस्यानुपायसिद्धस्य अर्थात् - कोई सर्वद्रष्टा सदा से कर्मों से अछूता नही के उस का सिद्ध होना किसी सकता, क्योकि विना उपाय Brand
SR No.010169
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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