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________________ ( ३१६ ) सुखदुख एक हद तक अवश्य स्वाधीन नहीं है, क्योंकि पूर्व कर्मवन्ध का परिणाम विना भोगे नहीं मिटता है । किन्तु यह कहना कि शुद्ध-बुद्ध ईश्वर की प्रेरणा से वह स्वर्ग और नर्क जाते हैं युक्तियुक्त नहीं । सामान्य पुरुष भी अपने बालकों को दुष्कर्म नहीं करने देता, तो सारे जग का पालक ईश्वर कैसे अपने आधीन जीवों को दुष्प्रवृत्ति करने देगा ? यहाँ नय-प्रमाण की अज्ञानता भ्रमोत्पादक बनी हुई है। इसमें सन्देह नहीं कि आत्मा शुद्ध रूप मे ईश्वरतुल्य है और वही अनादि से पद्गगल ससर्ग में पड़ी संमृति के चक्कर लगा रही है इसलिए वही कर्ता और फलदाता है। उसके अतिरिक्त और कोई परमेश्वर नहीं है । मुक्तात्मा पूर्ण स्वाधीन है। मीमांसादर्शन यद्यपि ईश्वर की सत्ता नहीं मानता है, परन्तु वह शब्द और वेद को अनादि अपौरुषेय मानता है उसके मतानुसार यज्ञादि कर्म करना ही धर्म है। ज्ञानप्रवाह रूपमे अवश्य अनादि है; परन्तु शब्द को अपौरुषेय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शव्द पद्गल (Matter ) का विकार है। इसलिये वह होठ ताल आदि से बोले जाते हैं, जिससे उनकी उत्पत्ति पुरुष के आधीन ठहरती है । सर्वज्ञ जीवन्मुक्त परमात्मा से ही वह ज्ञान प्रकाशमान होता है इसीलिये वह 'अति' है। निस्सन्देह सशरीरी परमात्मा सामान्य पुरुष नहीं होते। यदि इसलिये उन्हे अपुरुष कहा जाय तो किंचित् ठीक भी है-वह विशिष्ट विज्ञानी पुरुषातीत महापुरुष हैं । इन महापुरुष के बताये हुये धर्म का अनुकरण करना श्रेय है । मूल मे ऋग्वेदादि उन्हीं के बताये हुये धर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन अलंकृत भाषा मे करते थे-उनमे पशुयज्ञादि हिंसाकर्म करने का विधान नहीं १. वेदस्य भपौरुषेयतया निरस्त समस्त शंका कलकारस्वेन स्वतः सिद्धम् । -सर्वदर्शन संग्रह पृ० २१८ -
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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