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________________ ( २७८ ) का सौभाग्य सवहीं भाग्यशाली जीवों को प्राप्त हुया था। कहते हैं कि जब भगवान् की परमोत्कृष्ट शुद्धात्मा अवशेष अधातिया कमां का नाश करके लोक शिखिर पर न्थित सिद्धशिला की ओर जा रही थी उस समय कृष्णपक्षीय रात विमिराच्छन्न-काली चादर में छपी पड़ी थी; परन्तु निर्वाण की विशिष्टता ने उस काली चादर की धज्जियाँ उड़ादी! चहुँ ओर अपूर्व देदीप्यमान प्रकाश फैल गया ! जान ज्योति का दिव्य आलोक सबने प्रत्यक्ष देखा । लोक में वह एक चमत्कार था, नो असाधारण और सहन-सुलभ नहीं है। देवेन्द्र ने भगवान की पूजा करके उनके शरीर की अन्त्यक्रिया की और उस स्थान को चिन्हित कर दिया ! उपरान्त वहाँ एक स्तूप बना दिया गया था। ___ भगवान के निर्माण समत्र उत्तरीय भारत के काशी कौशल के अठारह गणराजाओं ने और मल्लगणतन्त्र रानसंव के नौ राजाओं ने एवं लिच्छवि गणराजमंव के नौ रानाओं ने विशेष उत्सव मनाया था-घी के दीपक जलाकर उन्होंने हर्ष प्रगट किया था। पावापुरी दीपावली से चमचमा रही थी, मानो यही कह रही थी कि "यथार्थ ज्ञान का प्रकाश-पुंज अब संसार में नहीं है, पोद्गलिक-पार्थिवता का अस्थायी प्रकाश टिमटिमा रहा है !' चहुँ ओर से लोग भगवान् के निर्वाण स्थान की पतितपावन रज मस्तक पर लगाने आये और सबने ही उस दीपोत्सव में भाग लिया। श्री जिनसेनाचार्य ने इस प्रसंग का उल्लेख निम्न प्रकार किया हैज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवद्धया, सुरासुरैदीपितया प्रदीप्तया । तदास्म पाबानगरी समंततः, प्रदीपिताकाशतला प्रकाशेत ॥१६॥३३॥
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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