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________________ ( २६७ ) आवश्यकता होती है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अभाव मे कोरी तपस्या दुख ही सिरजती है। जैन जीवन मे अज्ञान क्रिया का निषेध है और शक्ति से अधिक चारित्र न पालने के लिये भी मुमुक्षु सावधान कर दिया गया है। किन्तु गौतम ने शायद इस ओर ध्यान नहीं दिया। वह शरीर के मोह मे फंस गये और आराम से नया मार्ग ढूँढने में लगे। जैनग्रन्थ 'दर्शनसार' में जिन बद्धकीर्ति मुनि का उल्लेख है वह गौतमबद्ध का ही द्योतक है । उसमें लिखा है कि "श्री पार्श्वनाथ के तीर्थ मे सरय नदी के तटवर्ती पलाश नामक नगर मे पिहिताश्रव साधु का शिष्य बुद्धिकीर्ति मुनि हुआ, जो महाश्रुत अर्थात् बड़ाभारी शास्त्रज्ञ था। मुर्दा मछलियों के आहार करने से वह ग्रहण की हुई दीक्षा से भृष्ट हो गया और रक्ताम्बर धारण करके उसने एकान्त मत की प्रवृत्ति की। फल, दही, दूध, शक्कर आदि के समान मास मे भी जीव नहीं है, अतएव उसकी इच्छा करने और भक्षण करने में कोई पाप नहीं है। जिस प्रकार जल एक द्रव्य अर्थात् तरल पदार्थ है, उसी प्रकार शराब है वह त्याज्य नहीं है। इस प्रकार की घोषणा करके उसने ससार मे सम्पूर्ण पापकर्म की परिपाटी चलाई। एक पाप करता है और दूसरी उसका फल भोगता है, इसतरह के सिद्धान्त की कल्पना करके और उससे लोगों को वश मे करके अपने अनुयायी बनाकर वह मरा।" इस उद्धरण मे देवसेनाचार्य ने देखी और सुनी वाते लिखी हैं। उन्होंने अपने समय के बौद्धश्रमणों मे जैसे आचारनियम प्रचलित देखे उनका उल्लेख इस ढग से किया कि मूलतः उनका प्रचार गौतमबुद्ध के द्वारा हुआ समझा जावे। बौद्धग्रन्थ 'विनयपिटक' 8 के उल्लेखों से इस बात का समर्थन * महावग्ग (६ । २३ । २) में भिन्नु के मांस खाने का उल्लेख
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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