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________________ महावीर बईमान यह लुगांडपी नही करते। वह अपने कर्तव्य को चीन्हने हैं और सप में अपने गृहत्याग करने का निश्चय घोषित करते है-मातापिना के मोहपाश को जनेरित करके वह निशा, वीर उमो प्रकार वनका रान्ना लेते हैं जिस प्रकार एक कर्मठ योद्वा रणनेत्र के लिये प्रयान करता है। वह जैन मुनि ती नियमित माधना में निमग्न हो जाते है-भटकत नहीं। निश्चल माधना करके सत्य प्रकाश को पाते हैं। म० गौतम बुद्ध घर से निकल कर एक नहीं अनेक माधुश्रा का मगति करते हैं-वह जिनाम् वने अनियमित रूप में इधर स उधर मत्य को टढत हैं। वह दिगम्बर मुनि का कठोर जीवन भी बिताते हैं। परन्तु तपश्चरण के काठिन्य से घबडा जाते हैं । उनको विश्वास हो जाता है कि " इन कठिनाइयों से परिपूर्ण असह्य मार्ग द्वारा मैं उस अनूठे और उत्कृष्ट पूर्णनान को, जिसे मानववद्धि समझती नहीं प्राप्त नहीं कर पाऊँगा | क्या यह सम्भव नहीं कि उसके प्राप्त करने का कोई अन्य मार्ग हो ? दुख बुरा है। अति (Excess) दुख है। तप एक अति है इसलिये दुखवर्द्धक है। उसके सहन करने में कोई लाभ नहीं।" किन्तु गौतम यह भल गये कि वास्तव में प्रबल इच्छा बुरी है और नियमित जीवन का अभाव और भी बुरा है । गृहस्थाश्रम की साधना केवल विवाह कर लेने में नहीं है, बल्कि उसकी साधना तो सयम एवं अन्तः ब्रह्मचर्य पालन करने में अन्तर्निहित है । कुमार महावीर वर्द्धमान ने गृहत्याश्रम मे साधना की थी'श्रावक के वारह ब्रतों को उन्होंने पाला था । इस नियमित अभ्यास से वह इच्छा-राक्षसी को परास्त करने में सफल हुए थे। शैलशिखर पर पहुँचने के लिये सोढ़ी की & ERE, II, p. 70
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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