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________________ (२४८ ) मध्यम, उत्कृष्ट । गणना का आदि एक मान्य है, परन्तु वह 'एक' केवल वस्तु की सत्ता को स्थापित करता है-उससे वस्तु के भेद प्रकट नहीं होते। वस्तु के भेद की सूचना दो से प्रारम्भ होती है। इसलिए वस्तुत दो को 'सव्यात' का आदि मानना उपयक्त है। यह 'दो ही जघन्य संख्यात है। जघन्य-परीतअसंख्यात से एक कम 'उत्कृष्ट सख्यात' होता है। इनकी मध्यवसी सख्यायें 'मध्यम संख्यात' हैं। संख्यात अङ्क गणना ही लौकिक है-मनुष्य इसे अपने व्यवहार में लाता है-यह श्रुत ज्ञान का विषय है। असख्यात और अनन्त अङ्क गणना लोकोत्तर गणित है। अल्पज मनुष्य को उसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। वह अवधिज्ञान का प्रत्यक्ष विषय है। विशेष ज्ञानी ऋषिवर ही उसका अनुभव पाते हैं। अनन्त की गणना केवलज्ञान (Omniscience) का प्रत्यक्ष विषय है। संख्यात अंकगणना २४ अंक प्रमाण निम्न प्रकार है (१) एक, (२) दश, (३) शतक, (४) सहस्र, (५) दशसहस्र, (६) लक्ष, (७) दशलक्ष, (८) कोटि, (६) दशकोटि, (१०) शतकोटि, (११) अर्बुद, (१२) न्यर्बुद (१३) खर्व, (१४ महाखर्व, (१५) पद्म, (१६) महापद्म, (१७) श्रेणी, (१८) महाश्रेणी, (१६) शंख, (२०) महाशंख, (२१) क्षित्य (२२) महानित्य, (२३) क्षोम, (२४) महांक्षोम। __ परन्तु संख्यात गणना का अन्त २४ अंकों में ही नहीं समझ लेना चाहिए । उत्कृष्ट सख्यात इससे बहुत बड़ी चीज है। यह उत्संख्यक गणना १५० अंक वल्कि उसले भी अधिक अंक प्रमाण है। इस गणना के अनुसार आज प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव के निर्वाण की गिनती सुगमता से की जा सकती है। आप उसे यं समझिये.
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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