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________________ ( २४७ ) उपर्युक्त प्रकार एक से अधिक रूप मे अन्तरहित संख्या के ज्ञापक 'अनन्त' पद का प्रयोग हो सकना सम्भव है । साधारणतः अनन्त पद का प्रयोग 'गणनानन्त' रूप मे प्रायः होता है, जो गणना के लिए पर्याप्त और सुगम है। इसके तीन भेद किये गये हैं : (१) परीतानन्त, (२) युक्तानन्त, (३) अनन्तानन्त और यह तीनों ही जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट होते है । जघन्य असंख्यातासंख्यात संख्या को तीन बार वर्गित संवर्गित करने से जो राशि उत्पन्न होती है उसमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, एक जीव और लोकाकाश, इनके प्रदेश तथा प्रतिष्ठित वनस्पति के प्रमाण को मिलाकर उत्पन्न हुई राशि को पुन. तीन वार वर्गित संवर्गित करना चाहिये । इस प्रकार प्राप्त हुई राशि मे कल्पकाल के समय, स्थिति और अनुभागबंधाध्यवसाय स्थानों का प्रयोग तथा योग के उत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेद मिला कर उसे पुनः तीन वार वर्गित संवर्गित करने से जो राशि उत्पन्न होगी वह जघन्य परीतानन्त कहलाती है । इसको वर्गित संवर्गित करने से जघन्य युक्तानन्त होता है और जघन्य युक्तानन्त का वर्ग जघन्य अनन्तानन्त है । उत्कृष्ट अनन्तानन्त केवल ज्ञान: माण है । असंख्यात अभी तीन प्रकार का होता है : परीत, युक्त और सख्यात । इन तीनों मे से भी प्रत्येक पुनः जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद रूप है । जघन्य - परीत- असंख्यात का प्रमाण अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका नामक चार कुण्डों को द्वीप समुद्रो की गणनानुसार सरसों से भर-भर कर निकालने के प्रकारवत् है । जघन्य युक्तासख्यात से एक कम उत्कृष्ट परीतासंख्यात का प्रमाण है। इन दोनों के बीच के 'मध्यम' हैं। संख्यात के केवल तीन भेद हैं : जघन्य, '
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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