SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २१६ ) तो शत्रु का एक बांके वीर की तरह मुकाबिला करता है । दया और प्रेम सदा उसके साथ रहते हैं । वह शत्रु से उसकी गलती सुधारने के लिये लड़ता है । दूसरे का बुरा या नाश करने की दुर्भावना से सच्चा वीर कभी नहीं लड़ता । युद्ध सभी निंदनीय और लोक के लिये शोचनीय है, परन्तु सत्य, अहिंसा और न्याय की रक्षा अनिवार्य है । अतएव स्वार्थ एवं अहङ्कार का निरोध करके दुष्टों को दण्ड देना गृहस्थ का कर्तव्य है- पापीजनों के सम्मुख आत्म समर्पण वह कभी नहीं करेगा । बस, वह यह ध्यान रक्खेगा कि उसका संग्राम स्वार्थ और द्वेष, लोभ और अभिमान के कारण नहीं है । उसका उद्देश्य प्रशस्त है - प्रमत्त रूप नहीं है | अहिंसक भाव ही प्रधान है । इसी मे लोक का उत्थान छिपा हुआ है क्योंकि : - " सव्वे पाया पिया उया, सुहसाया दुह पडिकूला अप्पिय वहा ! पिय जीविगो, जीविकामा, तम्हा रणातिवाएज्ज किंचणं ॥' अर्थात् - "सब प्राणियों को आयु प्रिय है सब सुख के अभिलाषी हैं, दुख सब के प्रतिकूल है, बध सब को अप्रिय है, सब जीने की इच्छा रखते हैं, इससे किसी को मारना अथवा कष्ट पहुँचाना उचित नहीं है ।" सिंहभद्र ने तीर्थकर प्रभो को साष्टाङ्ग नमस्कार किया- उनकी शंकायें निर्मूल हो गई थीं । उन्होंने श्रावक के व्रतों को ग्रहण किया और निर्मन्थ मुनियों के वैयावृत्य और आतिथ्य सत्कार मे जो समझाने से न माने तो उसको जीतने के लिए शस्त्र युद्ध का विधान है: Phimp "बुद्धि युद्धेन पर जेतुमशक्त. शस्त्र युद्धमुपक्रमेत् ||४|| " - नीतिवाक्यामृतम् ।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy