SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १६८ ) जहाँ सात्यकि ध्यानमग्न थे। वह साड़ो निचोड़ने लगी-विजली चमकी-सात्यकि के सामने रूपराशि खड़ी थी। रति और काम का ही मानों वहा समागम होने को था। सात्यकि भल गये अपने को-ज्येष्ठा भी वेसुध हो गई। दोनों शील-रत्न खो बैठे। किन्तु धर्मात्मा की वासना भी वैराग्य सूचक होती है । वासना का भूत उतरते ही सात्यकि और ज्येष्ठा ने अपनी भूल पहचानी! वह दोनों अपराधी भ० महावीर के सम्मुग्व लज्जा से मुख नी वा किये खड़े थे। हृदय उनका पश्चाताप की अग्नि मे तप रहा था वह किये हुए पाप का प्रायश्चित चाहते थे। भ. महावीर ने उनको दुतकारा नहीं, प्रत्यत उनको प्रायश्चित का पात्र माना ! ऐसे असमर्थ धर्म-पथिकों की आत्मशुद्धि के लिये ही भगवान् महावीर ने प्रायश्चित-शास्त्र का निरूपण किया और घोपणा की कि ऐसा कोई पाप नहीं है, जिसकी शुद्धि नहो सकती हो सघवृद्धि और शुद्धि के लिये कर्मवश पतित हुए मनुष्य को अवश्य प्रायश्चित देकर उसका उपकार और धर्म का उत्कर्ष करना चाहिये। सात्यकि ने पुनः मुनि दीक्षा ली और ज्येष्ठा गर्भभार से मुक्त होने के लिये महारानी चेलनी के संरक्षण मे रही। उपरात आर्यिका चन्दना से प्रायश्चित लेकर पुनः व्रत-नियम पालने में लग गई। साराशतः महारानी चलनी वीरसंघ के उत्कर्ष के लिये अनेक उल्लेखनीय कार्य करती रहती थीं। अन्त मे वह आर्या चन्दना के निकट आर्यिका हो गई थीं। दोनों बहनें स्व-परकल्याण करती हुई विचरी थीं। वन्य था वह समय जब राजरानिया भी भोग मे नहीं, योग में मग्न रहती थीं ! सम्पति और ऐश्वर्य में नहीं, त्याग और सेवा धर्म में आनन्द मानतीं थीं। सती चन्दना और चेलना वीरसंघ की व्यवहारिक प्रभावना के लिये नित्सन्देह सुदृढ़ त्वम्भ रूप थीं! यह था भ० महावीर की शिक्षा का प्रभाव !स्त्रियां भीअहिंसक वीर बनीं विचर रही थीं।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy