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________________ ( १७४ ) नहीं-वह मन के मते चलेगी ही। किन्तु विवेकी अपनी से कास लेता है । देखो, चाहे ब्राह्मण हो या शूद्र, यदि वह हिंसादि पापाचार करेगा तो अवश्य नर्क जायगा और लोक में भी पापी का अनादर होगा। इसके विपरीत यदि ब्राह्मण या शूद्र, अहिंसादि पुण्य कमों को करेगा तो स्वर्ग पायेगा। है न यह वात ?' ब्राह्मण ने कहा, 'हॉ, पाप से दुख और पुण्य कर्म से सुख मिलता है। पुण्य और पाप करने में सभी मनुष्य स्वाधीन हैं ! जैनी ने बतलाया, "जब यह बात है, विप्र ! तब ब्राह्मणक्षत्रिय-वैश्य-शूद्र, सभी एक समान हुचे। उनमे उच्चता-नीचता का मौलिक भेद मानना मिथ्या है। निश्चय जानो, अपने कर्म से ही मनुष्य 'ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य अथवा शूद्र बनता है ! भरत महाराज ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना क्षत्रिय, वैश्य और शद्रों मे जो वर्मात्मा पुरुप थे, उनको अलग छॉट कर की थी, जिससे राष्ट्र की आध्यात्मिक उन्नति हो । प्राकृत राष्ट्र की उन्नति के लिये ही वणों (वगों) की व्यवस्था की गई थी । राष्ट्र की रक्षा के लिये क्षत्रिय नियुक्त किये गये थे-राष्ट्र की श्रीवृद्धि के लिये वैश्य निर्धारित किये गये और लोक सेवा एवं शिल्पोन्नति के लिये शद्रों का वर्गीकरण किया गया। सम्राट अपभदेव ने सभ्यता के अरुणोदय में मनुष्यो का यह वर्गीकृत विभाजन किया था। किन्तु दुख है कि न्वार्थी मनुष्यों ने आगे चलकर इस व्यवस्था को जन्मगत उच्चता-नीचता का माप ठहरा कर अपना पूज्यता और अर्थलान का साधन बना लिया। ब्राह्मण ने कहा, हो सकता है, यह ठोक हो ! किन्तु जातियों में भेद न मानने पर कुल-जाति की शुद्धि नहीं रहेगी, जिससे धर्म का हास १. 'कम्मुरण धम्मणो होइ, कन्मुणा होइ खत्तियो। वइसो कम्मणा होइ, सुदो दवइ कन्मुणा ॥ २५ ॥
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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