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________________ अपने को कृतकृत्य हुआ मानते थे। कामिनी-कंचन और सुरापान की मादकता में पौरुष से हाथ धोये बैठे थे वे । भ० महावीर ने उनको सचेत किया-उनके अन्तर में स्थित आत्मा के सत्य. रूप के दर्शन जनता को कराये । व्यक्ति ने जाना वह स्वयं सर्वशक्तिमान है-ईश्वर का रूप है-ईश्वर कहीं बाहर नहीं है-वह स्वयं ईश्वर है । भोग की वासनालिप्त दुर्भावना से उसका हृदय त्वच्छ हो गया । मानव के हृदय में विवेक जागत हुआ। मांस-मदिरा-मधु को छूना भी लोगों ने पाप समझाशाकाहार के नये नये स्वादिष्ट भोजनों का आविष्कार हुआ। 'जीयो और जीने दो' की अहिंसा भावना ने मानव के लोम का संवरण किया-वह उदार वना । पैसा उसकी दृष्टि में ठीकरा हो गया-वाह्य समृद्धि उसके लिये अन्तिम ध्येय न रहा। 'संग्रह' शब्द उसके कोष से दूर होगया । भ० महावीर का परिग्रह परिमाणव्रत जो उसने लिया था। बड़े बड़े राजा महाराजा और पूजीपति स्वेच्छा से भिखारी बन गये उन्होंने अपनी धन-सम्पति लोकहित के कार्यों में व्यय कर दी। भारत में नयनाभिराम, मूर्ति, मन्दिर, मानस्थम्भ, दुर्ग आदि वन गये। बड़े बड़े विश्वविद्यालय खोले गये, जिनमें आदर्श ब्रह्मचारी अध्यापक-आचार्य शैक्षों को निशुल्क शिक्षा देते थे । छात्रों को भोजन वस्त्र भी निशुल्क मिलता था । चाहे राजा का बेटा हो अथवा एक किसान का-सब को एक समान ब्रह्मचारी जीवन विताना होता था-सवको आश्रम का भोजन लेना होता था। समाज निर्माण के लिए ऐक्य और संगठन का क्रियात्मक पाठ यहाँ से लोग सीखते थे। इतना ही नहीं, भ० महावीर की शिक्षा का प्रसार दूर दूर देशों में किया गया। फणिक, पारत्य, यवन प्रादि देशों के लोग भारतकी ओर आकृष्ट हुये-भारत से उनका
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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