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________________ ( १३६ ) यूँ तो जैनधर्म और जैनसंघ भ० महावीर से प्राचीन था - वह भ० महावीर के समय के पहले भी विद्यमान था, क्योंकि तीर्थकर पार्श्वनाथ ने उसकी पुनर्स्थापना की थी । किन्तु भ० महावीर के समय तक लोक परिस्थिति इतनी बदल चुकी थी कि उस प्राचीन जैन संघ का पुनरुद्धार होना आवश्यक था। भ० महावीर के 'वीर- संघ' की चतुर्विध व्यवस्था ने उस आवश्यकता को पूर्ण किया । भगवान् की शरण में अनेक भव्य प्राणी आये थे । कोई मुनि हुआ था - किसी ने उदासीन उत्कृष्ट श्रावक के व्रत धारण किये थे और वह भगवान् के साथ रहने लगा था। जो पुरुष घर का मोह नहीं छोड़ सके थे, वह मात्र भगवान् के भक्त बन गये थे-ऐसे असंयत सम्यग्दृष्टि और अणुव्रती घर में रहकर ही धर्म प्रभावना कर रहे थे । उन्हें स्व पर कल्याण करने में रस आता था । पुरुष ही नहीं, भ० महावीर के सघ में स्त्रियों को भी अपने भाग्य निर्माण का पूर्ण अवसर प्राप्त हुआ था । अनेक रमणियों ने महाव्रत धारण किये थे---वे आर्यिका बनीं थीं और कई एक क्षुल्लिका होकर रहीं थीं । जिन्हे गृहस्थी से ममता बाकी थी, वे भगवान् का नाम और काम जपती हुई घर में ही रहीं थीं । इस प्रकार भ० महावीर के भक्त दो तरह के थे: - (१) गृहत्यागी और (२) गृहवासी ! गृहवासी भक्त केवल व्रती और व्रती श्रावक और श्राविकायें थीं; परन्तु गृहत्यागी भक्त जो निरन्तर भगवान् के साथ २ विहार करते थे, मुनि और आर्यिका भी थे । अतः 'वीर संघ' चतुर्विध रूप अर्थात् (१) मुनि, (२) आर्यिका (३) श्रावक, (४) और श्राविका रूप था । कतिपय श्वेताम्वरीय शास्त्रों में मुनि और आर्यिकाओं से ही युक्त वीर संघ बताया है - श्रावक श्राविकाओं को वह घर में रहने वाले धर्माराधक ( गिहिणो गिहिमज्झ वसन्ता -- उपासकदशासूत्र २।११६ ) बताते है; परन्तु यह ठीक नहीं है-त्वयं श्वेताम्बरीय
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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