SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३८ ) जो वहका ही रहे, वह भले ही भटकता फिरे। भ० महावीर को लोक की इस प्रवृत्ति में न हर्ष था और न विषाद ! वह जानते थे कि किसी उपदेश को बलात्कार किसी के गले में नहीं उतारा जा सकता और वैसे उपदेश को किसी के मत्थे मढ़ने से कोई लाभ नहीं। इसलिये उन्होंने प्रत्येक प्राणी को अपनी वृद्धि से-विवेक से काम लेने का अवसर दिया। वाजार में एक पैसे की मिट्टी की इंडिया को भी लोग जब ठोक वजा कर खरीदते हैं, तब अपने जीवन के सुधार और विगाड़ वाले मसले को उन्हें क्यों आँख मींच कर ग्रहण करना चाहिये ? इस मन्तव्य की सिद्धि के लिये मुमुक्षु को अपनी सारी मानसिक शक्ति और विवेक को प्रयक्त करना चाहिये-निर्मल हृदय से परीक्षा करके सत्य को ग्रहण करना चाहिये। इन्द्रभति गौतम आदि अनेक मुमुक्षुओं ने तर्क और न्याय की कसौटी पर भ० महावीर के उपदिष्ट ज्ञान को कसा और जब उसे सौ टच सोना-समान निखिल सत्य पाया तव वह उनकी शरण में आये ! भ० महावीर की यही विशेषता रही कि उन्होंने किसी से अपना अनुयाई बनने के लिये नहीं कहा और न कोई प्रलोभनया भय दिखाया। उन्होंने वैज्ञानिक रीति से धर्म का स्वरूप प्रतिपादा~जो चाहे उससे काम ले । आखिर विश्व का उत्कृष्ट कल्याण करने के लिये ही उनके तीर्थकर पद का निर्माण हुआ था । अतः वह यह इच्छा करते ही कैसे कि सारी दुनियाँ उनके झडे के नीचे चली आय ? उन्होंने केवल मनुष्यों को धर्म की ओर ऋज कियावह वातावरण उत्पन्न किया जिससे मनुष्य हृदय में धर्म और सेत्य के लिये रुचि उत्पन्न हो । उनकी इस सत्य-शैली का ही यह परिणाम था कि उनके शिष्यों और भक्तों की संख्या दिन-दूनी बढ़ी थी। शिष्यों की संख्या वृद्धि से ही यह आवश्यकता उत्पन्न हुई कि संघ की व्यवस्था की जावे!
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy