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________________ ( १११ ) आगे धर्मध्वजों से मंडित मानस्थम्भ और धर्मचक्र शोभायमान थे। उस समवशरण में आकार, चैत्यवृक्ष, ध्वजा, वनवेदी, स्तप, तोरण आदि रत्नमई और जिन प्रतिमाओं से युक्त बने हुचे थे। प्राणी उसमे पहुंचते ही आधि-व्याधि भूल जाता था। धर्ममय वातावरण मे वह निराकुल हो जाता था । उस सभामण्डप में मनुष्य ही नहीं पशु तक पहुँच कर अपना आत्मकल्याण करते थे। समवशरण में बारह 'कोठे' रूप भिन्न भिन्न विभाग किये गये थे, जिनमे साधु, आर्यिका, देव-देवाङ्गना, सभी पुरुप-स्त्री और पशु-पक्षी वैठते थे। उसके ठीक मध्य भाग में एक गंधकुटी थी, जिसमे एक स्वर्ण-सिंहासन रक्खा हुआ था। परन्तु भगवान इतने निर्लिप्त और निर्मोही थे कि उसका स्पर्श भी मानो उन्हे असह्य था-उनकी पुण्य प्रकृतियों से उनका शरीर इतना सूक्ष्म और सुन्दर हो गया था कि वह अधिक स्थूल पदार्थ का आश्रय न चाह कर आकाश मे ही स्थिर था। सिंहासन पर स्वर्णकमल बना था, जिससे यही भासता था कि भगवान् कमलासन विराजित हैं । यहीं से भगवान् सर्वोपकारी उपदेश देते थे-वह इस प्रकार से ध्वनित होता था कि सब ही प्राणी-देव, मनुष्य और पशु-पक्षी उसे अपनी २ भाषा मे समझ लेते थे। यह उनके भाषण की विशेषता थी। इस व्यवस्था में पाठक, देखिये भ० महावीर की विश्व के प्रति समष्टि ! उन्होंने अपने उदाहरण से यह स्पष्ट कर दिया कि प्राणी मात्र एक समान है--उनमे एक ही जीवन-ज्योति एकसी ही आत्मा विद्यमान है। इसलिये उनको अपने ही समान १. वर्तमान रेडियो-आविष्कार से इस प्रकार की ध्वनि होने में कुछ अनहोनी बात नहीं दिखती। शास्त्र कहते हैं कि मागधदेव के सुपुर्द यह व्यवस्था थी।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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