SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामाजिक सन्दर्भ पर यह संशय प्रकट किया जा सकता है कि यह तो एक काल्पनिक और अव्यावहारिक उद्देश्य है, तो मेरा विनम्र निवेदन यह है कि चलने वाली चींटी भी मीलों की दूरी तय कर लेती है और न चलने वाला गरुड़ भी जहां बैठा है, वहीं बैठा रह जाता है । यद्यपि हर व्यक्ति अर्हन्त नहीं बन सकता, किन्तु उद्देश्य तो हमें महान् रखना ही पड़ेगा । सम्यक् दृष्टि का विकास : एक अन्य स्थल पर भगवान ने कहा है, 'विकार दूर करने वाला ज्ञान हो विद्या है ।' श्राज हमारा दुर्भाग्य यह है कि विद्या और शिक्षा के नाम पर हमें ज्ञान के स्थान पर अज्ञान प्रदान किया जाता है, क्योंकि ज्ञान वह होता है जो हर विषय श्रीर वस्तु का निरपेक्ष रूप विद्यार्थी के समक्ष प्रस्तु करे । किन्तु श्राज ऐसा कहां होता है ? आज तो एक रंग विशेष में रंगा हुआ एक पक्षीय विकृत रूप ही निहित स्वार्थो की पूर्ति के लिए छात्रों के मस्तिष्क में भरा जाता है, परिणामतः सम्यक् ज्ञान के अभाव में हमारा दर्शन भी सम्यक् नहीं होता श्रीर तदनुसार हमारा चारित्र और व्यवहार भी सम्यक नहीं हो पाता । ७२ 'भगवान महावीर के उपदेशों में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र की रत्नत्रयी पर विशेप वल दिया गया है और इन तीनों में भी सर्वप्रथम स्थान दिया गया है सम्यक ज्ञान को, जो शिक्षा के आदर्श स्वरूप का परम आवश्यक और प्रथम प्राधार है । t अपने उपदेशों में भगवान कहते हैं कि प्रत्येक आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन श्रीर अनन्त शक्ति -- गुरण भरे होते हैं किन्तु ग्रज्ञान के कारण ये गुण मलिन हो जाते हैं । शिक्षा इस मलिनता को दूर करने की प्रक्रिया है । भगवान महावीर के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति निर्भय, सादा, पुरुषार्थी, धर्म श्रद्धावन्त ब्रह्मचारी, सन्तोषी, उदार, और विषय संयमी बनता है । दयालु, सेवा भावी, सत्यवादी, 1, 1 यदि इन गुणों को शिक्षा का आधार मान लिया जाय और इनको सिद्धि और प्राप्ति के लिए सच्ची चेप्टा की जाय तो संसार की ऐसी कौनसी समस्या है जो चिन्ता का विषय वन सकती है ? सर्वागीण शिक्षा : भगवान महावीर की शिक्षा एकांगी न होकर सर्वांगी है। वे केवल ग्रात्मा के विकास पर ही वल नहीं देते प्रत्युत शरीर और मस्तिष्क का विकास भी परमावश्यक मानते हैं । उनके अनुसार उपयुक्त व्यायाम द्वारा नियमित रूप से शरीर को कसना, अपना प्रत्येक कार्य मन लगा कर स्वतः करना, शारीरिक कष्ट को बल बढ़ाने का साधन मानना एवं हर्प पूर्वक श्रम कार्य करना शारीरिक शिक्षा है । हितकारक और अहितकर वात में भेद करने, अपने दर्शन और चरित्र को सम्यक् बनाने तथा श्रात्म-वोध के लिए सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति करना मानसिक शिक्षा है । ग्रहिंसा, सत्य, सन्तोप, क्षमा, दया, विनय, सेवाभाव, संयम, ब्रह्मचर्य श्रादि गुणों द्वारा आत्म-परिष्कार करते हुए ग्रर्हन्त तुल्य होने का प्रयास करना आव्यात्मिक शिक्षा है | : यहां पर हम देखते हैं कि शरीर मस्तिष्क और ग्रात्मा तीनों के विकास का अत्यन्त ..
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy