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________________ समता-दर्शन : अाधुनिक परिप्रेक्ष्य में अर्थ का:नर्थ मिटे: सामाजिक जीवन के वैज्ञानिक विकास की ओर दृष्टिपात करें तो विदित होगा कि इस प्रक्रिया में अर्थ का भारी प्रभाव रहा है। जिस वर्ग के हाथों में अर्थ का नियंत्रण रहा; . उसी के हाथों में सारे समाज की सत्ता सिमटी रही वल्कि . यों कहना चाहिये कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों में समता प्राप्त करने के जो प्रयत्न चले अथवा कि जो प्रयत्न सफल भी हो गये--अर्थ की सत्ता वालों ने उन्हें नष्ट कर दिया । आज भी इसी अर्थ के अनर्थ रूप जगह लोकतंत्र की अथवा साम्यवाद तक को प्रतिक्रियाएं भी दूपित बनाई जा रही हैं। सम्पत्ति के अनुभव का उदय तब हुम्रा माना जाता है जब मनुष्य का प्रकृति का निखालिस आश्रय छूट गया और उसे अर्जन के कर्मक्षेत्र में प्रवेश करना पड़ा। जिसके हाथ में अर्जन एवं संचय का सूत्र रहासत्ता का सूत्र भी उसी ने पकड़ा । आधुनिक युग में पूंजीवाद एवं साम्राज्यवाद तक की गति इसी परिपाटी पर चली जो व्यक्तिवादी नियन्त्रण पर बांधारित रही अथवा यों कहें कि अर्थ के अनर्थ का विपमतम रूप इन प्रणालियों के रूप में सामने आया जिनका परिणाम विश्व युद्ध नरसंहार एवं आर्थिक शोपण के रूप में फूटता रहा है। .." अर्थ का अर्थ जव तक व्यक्ति के लिये ही और व्यक्ति के नियंत्रण में रहेगा तव नक वह अनर्थ का मूल भी बना रहेगा क्योंकि वह उसे त्याग की ओर बढ़ने से रोकेगा, उसकी परिग्रह-मूर्छा को काटने में कठिनाई आती रहेगी। इसलिये अर्थ का अर्थ समाज से जुड़ जाय और उसमें व्यक्ति की अर्थाकांक्षाओं को खुल कर खेलने का अवसर न हो तो संभव है, अर्थ के अनर्थ को मिटाया जा सके। दोनों छोर परस्पर पूरक बनें : ये सारे प्रयोग फिर भी वाह्य प्रयोग ही हैं और वाह्य प्रयोग तभी सफल बन सकते हैं, जब अन्तर का घरातल उन प्रयोगों की सफलता के अनुकूल बना लिया गया हो । तकली से सूत काता जाता है और कते हुए सूत से वस्त्र बनाकर किसी भी नंगे बदन को ढका जा सकता है लेकिन कोई दुष्ट प्रकृति का मनुष्य तकली से सूत न कातकर उसे किसी दूसरे की अांख में घुसेड़ दे तो क्या हम उसे तकली का दोप माने ? सज्जन प्रकृति का मनुष्य बुराई में भी अच्छाई को ही देखता है लेकिन दुष्ट प्रकृति का मनुष्य अच्छे से अच्छे साधन से भी बुराई करने की कुचेष्टा करता रहता है । । — एक ही कार्य के ये दो छोर हैं। व्यक्ति प्रात्म नियंत्रण एवं आत्मसाधना से श्रेष्ठ प्रकृतियों में ढलता हुआ उच्चतम विकास करे और साधारण रूप से और उसको साधारण स्थिति में सामाजिक नियंत्रण से उसको समता की लीक पर चलाने की प्रणालियां निर्मित की जाय । ये दोनों छोर एक दूसरे के पूरक वनें आपस में जुड़े, तब व्यक्ति से समाज और समाज से व्यक्ति का निर्माण सहज बन सकेगा। - सामान्य स्थिति अधिकांशतः ऐसी ही रहती है कि समाज के वहुसंख्यक लोग सामान्य मानस के होते हैं जिन पर किसी न किसी प्रकार का नियंत्रण रहे तो वे सामान्य
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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