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________________ सामाजिक संदर्भ दर्शन संभव था । तब राजनीति और अर्थनीति की धुरी भी व्यक्ति के ही चारों ओर घूमती थी । राजतंत्र का प्रचलन था और राजा ईश्वर का रूप समझा जाता था । उसकी इच्छा का पालन ही कानून था । अर्थनीति भी राजा के श्राश्रय में ही चलती थी। पर वैज्ञानिक विकास एवं सामाजिक शक्ति के उभार ने अव परिवर्तन के चक्र को तेजी से घुमा दिया है ।, राजनीतिक एवं आर्थिक समता का चिन्तन : ४४ आधुनिक इतिहास का यह बहुत लम्बा अध्याय है कि किस प्रकार विभिन्न देशों मे जनता को राजतंत्र से कठिन और बलिदानी लड़ाइयां लड़नी पड़ी तथा दीर्घ संघर्ष के बाद अलग-अलग देशों में अलग-अलग समय में वह राजतंत्र की निरंकुशता से मुक्त हो सकी । इस मुक्ति के साथ ही लोकतंत्र का इतिहास प्रारम्भ होता है । जनता की इच्छा का बल प्रकट होने लगा और जन प्रतिनिध्यात्मक सरकारों की रचना शुरू हुई । इसके आधार पर संसदीय लोकतंत्र की नीव पड़ी । लोकतंत्र वह शासन व्यवस्था है जो जनता की जनता के द्वारा तथा जनता के लिये हो । इस व्यवस्था में एक व्यक्ति की नहीं वल्कि समूह की इच्छा प्रभावशील होती है । व्यक्ति अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी तथा एक ही व्यक्ति एक बार अच्छा हो' सकता है तो दूसरी वार बुरा भी, ग्रतः एक व्यक्ति की इच्छा पर अगणित व्यक्ति निर्भर रहें, यह समता की दृष्टि से न्यायोचित नहीं माना जाने लगा । समूह की इच्छा यकायक नही बदलती और न ही अनुचित की ओर ग्रासानी से जा सकती है, अतः समूह की इच्छा को प्रमुखता देने का प्रयत्न ही लोकतंत्र के रूप में सामने आया । लोकतंत्र के रूप में राजनीतिक समानता की स्थापना हुई । छोटे-बड़े प्रत्येक नागरिक को एक मत समान रूप से देने का अविकार है और वहुमत मिलाकर अपने प्रतिनिधि का चुनाव किया जाय । यह पक्ष अलग है कि व्यक्ति अपने स्वार्थी के वशीभूत होकर किस प्रकार अच्छी से अच्छी व्यवस्था को भी तहस-नहस कर सकते हैं, किन्तु लोकतंत्र का व्येय यही है कि सर्वजन साम्य के लिये व्यक्ति की उद्दाम कामनाओं पर नियंत्रण रखा जाय । चिन्तन की प्रगति के साथ इसी व्येय को प्रार्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में भी सफल बनाने के प्रयास प्रारम्भ हुए। इन प्रयासों ने मनुष्यकृत ग्रार्थिक विपमता पर करारी चोटें की और जिन सामाजिक सिद्धान्तों का निर्माण किया, उनमें समाजवाद एवं साम्यवाद प्रमुख है । इन सिद्धान्तों का विकास भी धीरे-धीरे हुग्रा और कार्ल मार्क्स ने साम्यवाद के रूप में इस युग में एक पूरा जीवन-दर्शन- प्रस्तुत किया । युग अलग-अलग था, किन्तु क्रान्ति की जो धारा परिग्रह के रूप में महावीर ने प्रवाहित की, वैचारिक दृष्टि से कार्ल मार्क्स पर भी उसका कुछ प्रभाव था । कार्ल मार्क्स को भी यही तड़प थी कि यह अर्थ व्यक्तिगत. स्वामित्व के वन्धनों से छूट कर जन-जन के कल्याण का साघन वन सके । व्यक्तिगत स्वामित्व के छूटने का अर्थ होगा परिग्रह का ममत्त्व छूटना । सम्पत्ति पर सार्वजनिक . स्वामित्त्व की स्थापना से धनलोलुपता नही रहती है । मानवता प्रमुख रहे और धन उसके साधन रूप में गौण स्थान पर, एक परिवार की तरह सारे समाज में अार्थिक एवं सामाजिक समानता का प्रसार होना चाहिये ।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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