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________________ ३०४ सांस्कृतिक संदर्भ छंद निरोहेण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खि य वम्मधारी । पुन्वाइं वासाई चरेऽप्पमत्ते, तम्हामुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ॥ उत्तराव्ययन ४.८ अर्थात् जैसा सधा हा कवच धारी घोड़ा युद्ध में विजय प्राप्त करता है उसी प्रकार मुनि दीर्घ काल तक अप्रमत्त रूप से संयम का पालन करता हुया शीघ्र ही मोक्ष पाता है । भगवान् महावीर अपने श्रमणों को वारवार यही उपदेश देते थे कि हे प्रायुप्मान श्रमणों ! इन्द्रिय-निग्रह करो। सोते, उठते, वैठते सदा जागरूक रहो और एक क्षण भर भी प्रमाद न करो, न जाने कब कौन सा प्रलोभन आकर तुम्हें लक्ष्यच्युत करदे । अतएव जैसे अपने आप को आपत्ति से बचाने के लिए, कछया अपने अंग प्रत्यंगों को अपनी खोपड़ी में छिपा लेता है, उसी प्रकार अपने मन पर काबू रक्खो और अपनी चंचल मनोवृत्तियों को इधर-उधर जाने से रोको । भगवान् ने समय-समय पर जो उपदेश अपने साधकों को दिए हैं उन्हें सुगम बनाने के हेतु किसान, जुलाहा, पनिहारिन, वैश्य, गाय, वृपभ, वृक्ष, झोंपड़ी थाली, कटोरा, पनघट, ग्राम, वैल, माटी, हल आदि के उदाहरण दृष्टान्त के रूप में प्रयुक्त किये है। वस्तुतः जैन धर्म एक लोक-धर्म है जिसमें लोक की आत्मा स्थापित है। ऐसी परिस्थिति में भगवान् महावीर को लोक संस्कृति का संरक्षक कहना सर्वथा सत्य है । यह ध्यान रखने की बात है कि जैन भिक्षु विना किसी भेद भाव के उच्च कुलों के साथ ग्वालों, नाई, बढ़ई, जुलाहे ग्रादि के कुलों से भी भिक्षा ग्रहण करते हैं । इससे जैन श्रमणों की जनसाधारण तक पहुंचने की अनुपम साध और भावना का परिचय मिलता है। इन भिक्षुओं ने निस्संदेह महान् त्याग किया था । लोक-कल्याण के लिए अपने आप को उत्सर्ग कर देने का इतना उच्च आदर्श बहुत दुर्लभ है।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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