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________________ क्या आज के संदर्भ में भी महावीर सार्थक हैं २६३ के ही उदाहरण हैं जिन्होंने जितने दिन दिया अर्थात् त्याग किया, बलिदान किया, निःस्वार्थ और निःसंग भाव से समाज और मानवता की सेवा की उतने दिन बहुत कुछ पाया। परन्तु वे ही व्यक्ति जव उपलब्धि के शिखर पर पहुंचे तो टूट गये, विखर गये। इच्छाओं के दमन में और प्राप्तियों के चक्रव्यूह में ही घुसते चले गये । इसीलिये जब स्वराज्य मिला तो गांधीजी ने हर पद और प्रतिष्ठा से अपने को अलग रखा। वे अलग रहे तो ऊंचे रहे, अच्छे रहे, पवित्र रहे । वाकी लोग जो उसके नजदीक चले गये, उसमें पैठ गये वे निरन्तर नीचे और नीचे ही गिरते चले गये। पालोक की तलाश : __ यह हालत ही आज चारों ओर हाहाकार मचाये हुये है। एक क्रन्दन और चीत्कार हो रही है । आदमी अपना पथ भूल गया है। अन्धकार में चलता हुआ वह आलोक की तलाश कर रहा है । पर, आलोक तो अन्धकार को काटकर ही आ सकता है। अंधेरी इच्छात्रों से अंधेरा कटता नहीं, बढ़ता ही है । आज यही सबसे बड़ी विभीपिका है । रास्ता दीखता नहीं हो सो बात नहीं है । परन्तु रास्ते पर तो चलने से होता है । चलना ही तो कठिन है । बोलने में, कहने में, भक्ति और पूजा करने में क्या पड़ा है ? मूल-वातों को छोड़कर आनुषंगिक बातों में हम कितने ही दूर तक जायें, गहरे जायें, हम कुछ पा नहीं सकते। जोड़ना बनाम छोड़ना: आज व्यक्ति और व्यक्ति के बीच, समाज और समाज के वीच, वर्ग और वर्ग के वीच, देश और देश के बीच जो झगड़े हो रहे हैं, उन सव के मूल में परिग्रह के सिवाय क्या है ? यह परिग्रह नाना रूपों में व्याप्त है । वही हमारे चिंतन को पंगु और नपुंसक बनाये हुये है। चिंतन दिशा देता है, फल नहीं। फल तो चरित्र से, क्रिया से ही आता है । जो जितनी इच्छा रखता है और परिग्रह इकट्ठा करता है, वह उतना ही अधिक खुद परेशान होता है, दूसरों को परेशान करता है । जो जोड़ने में जीता है, वह जीता नहीं जलता है; जो छोड़ने में जीता है, वह जीवन से छलता है । धर्म को जियें: __धर्म को हमने पूजा के उच्च शिखरों पर बिठला कर जीवन से अलग कर दिया । हम उसकी शब्द-रटना करते हैं, पूजा और अर्चना करते हैं परन्तु जीवन में उसे नहीं उतारते, नहीं उतारना चाहते। महावीर ने जो कुछ देखा, जाना, समझा, उसे हजारहजार कठिनाइयों के बावजूद जिया। जो कुछ वाधायें आई, कप्ट सामने आये उन सब को झेला । तभी तो वे महावीर बने, इसी तरह बुद्ध और ईसा भी बने। उन्होंने अपने पर विजय प्राप्त कर जिनत्व हासिल किया, सत्य पर दृष्टि रखकर उन्होंने जीवन की विद्रोहात्मक और संघर्षमयी साधना की। इस मार्ग की सार्थकता आज भी बनी हुई है वल्कि यही मार्ग सार्थक है। इसको अपनाये विना, इस पर चले विना हम समस्याओं को कदापि हल नहीं कर सकते हैं । प्रजातन्त्र है तो समाजवाद है तो, साम्यवाद है तो, या और कोई वाद
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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