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________________ २६२ सांस्कृतिक संदर्भ इच्छा ही दासत्व की जननी : ___ महावीर की मूल वात यही थी कि अगर मनुष्य अपनी इच्छाओं का दास होकर रहता है, अर्थात् इच्छाओं का दमन नहीं कर सकता, उन पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता है.तो वह हर तरह से दास ही बना रहता है, दासत्व की शृंखलायें उसे बांधे रहती हैं, चाहे दासत्व राज्य का हो, समाज का हो, धर्म का हो, या और किसी भी तरह का हो । एपणा अर्थात् इच्छा ही दासत्व की जननी है । इच्छात्रों का दास बना हुया व्यक्ति खुद हमेशा वधा रहता है और उसकी प्रकृति दूसरों को भी हमेशा वांधने या वांधे रहने की ही होती है । इच्छा से इच्छा, कर्म से कर्म और लोभ से लोभ-इसी के गोरख-धन्धों में वह फंसा रहता है, कैद हुआ रहता है। फिर संतोष कहां, शांति कैसी ? जो व्यक्ति अपनी इच्छाओं की कैद में है, वह सब की कैद में है। इसीलिए महावीर ने पांच महाव्रत बतलायेअहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । ये पांचों महाव्रत मूलतः अपने-आप पर विजय प्राप्त करने के तरीके हैं । और जीवन का सत्य क्या है, इसे जानने के लिए उन्होंने कोई गढ़ा-गढ़ाया, बंधा-बंधाया मार्ग नहीं बतलाया। बस इतना ही कहा कि सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान द्वारा मनुष्य सत्य को प्राप्त करे और उसे अंगीकार कर सम्यक् चारित्र द्वारा जीवन में उतारे तो फिर मुक्ति का, निर्वाण का और जीवन का सर्वस्व उसके अपने हाथों में है । कितनी सीधी और सरल बात है, पर मनुष्य है कि इच्छायों की उपलब्धि में ही उसे सब कुछ जान पड़ता है। अहिंसा का विधायक रूप : महात्मा गांधी ने महावीर के इस जीवन सिद्धान्त पर चलकर ही समाज और देश के स्तर पर एक बड़ा संघर्प किया, अन्याय के विरुद्ध, असत्य के विरुद्ध और एक बड़ा इतिहास हमारे युग में उन्होंने बना दिया। महावीर के मार्ग को गांधी ने अपने नये प्रयोगों द्वारा अत्यन्त सम-सामयिक बना दिया। जो लोग यह समझते और कहा करते थे कि अहिंसा तो एक निषेधात्मक वृत्ति है, कायरता की प्रवृत्ति है, उन्होंने गांधी के असहयोग और सत्याग्रह में अहिंसा का विधायक रूप देखा, उसका तेज देखा । अहिंसक व्यक्ति को अधिक वीरता की आवश्यकता होती है, अधिक कष्ट सहन के लिए उसे तैयार होना पड़ता है। लेना ही लेना : आज हमारे देश के सामने और एक प्रकार से सारी मनुष्य जाति के सामने भी जो अनेक-अनेक समस्यायें उपस्थित हैं और जिनसे मनुष्य अत्यन्त पीड़ित और प्रताड़ित है, वे सब इसी बात में से पैदा हुई हैं कि आदमी इच्छात्रों की पूर्ति के प्रलोभन में डूबा हुया है, उसे अपने से बाहर कुछ दीखता ही नहीं । जो कुछ उसे दीखता है, वह उसे लुभाता है और सब कुछ को वह आत्मसात्, आत्म-नियंत्रित कर लेना चाहता है। आज जीवन के हर क्षेत्र में यही व्यक्ति- परक प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । आदमी लेना ही लेना चाहता है, उसी की खोज में लगा हुआ है, देना उसे मानो पाता ही नहीं है । देने का साहस ही उसमें नहीं है क्योंकि उसके लिये उसकी इच्छा नहीं है । आज हमारे सामने देश के उन हजारों व्यक्तियों के स्खलन
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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