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________________ मनोविज्ञान के परिवेक्ष्य में भगवान महावीर का तत्वज्ञान २३६ न करना ही संयम है । संयम आत्म विश्वास को बढ़ाता है। संयम से आत्मिक शक्ति व संपत्ति की वृद्धि होती है जो शांति और आनन्द का साधन बनती है। वस्तुतः आश्रव के अर्थात् आन्तरिक (मन के अज्ञात स्तरीय संस्कारों) ग्रंथियों के निर्माण के दो प्रत्यक्ष कारण हैं-(१) योग-मन, वचन और काया की प्रवृत्तियां-क्रियाए और (२) कपाय - राग-द्वेप-मोहादि भाव ।' इनका वर्णन 'बंध तत्त्व' में किया जा चुका है। इन दोनों कारणों की उत्पत्ति में भूमिका के रूप में मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद ये तीन कारण हैं । जो वस्तु या तथ्य जैसा है, वैसा न मानना, अन्यथा मानना मिथ्यात्व है। इन्द्रिय वासनाओं की पूर्ति व मानसिक कामनाओं की पूर्ति से प्रतीत होने वाला सुख, जो वस्तुतः सुखाभास है, उसे सुख मानना सबसे गहरा मिथ्यात्व है । इस मिथ्यात्व से कामनापूर्ति में सहायक या निमित्त पदार्थो (भोग्य पदार्थो) में सम्मोहन पैदा होता है, यह अविरति है । इस सम्मोहन से तन्द्रा अवस्था में जीवन विताना प्रमाद है। मिथ्यात्व और अविरित (सम्मोहन) से ही विपय और कपाय की लहरें उठती हैं । अतः आश्रव' या कर्म आत्मा से लगने के योग और कपाय 'साक्षात् कारण' हैं और मिथ्यात्व, अविरित व प्रमाद 'परम्परा कारण' हैं। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि सामान्यतः मन निष्क्रिय नहीं रह सकता अतः पाश्रव के कारण रूप अशुभ प्रवृत्तियों को रोकना तव ही संभव है जबकि अपने को शुभ प्रवृत्तियों में लगाया जाय । अतः कर्म बंध (मानसिक ग्रंथियों के निर्माण) को रोकने का उपाय हैशुभ प्रवृत्तियों में लगा जाय अर्थात् अपने को संयम पालने, शुभ भावनाओं के चिंतन में जोड़ा जाय । इसी को संवर कहा है । निर्जरा तत्त्व : भगवान् महावीर ने अंतस्तल पर स्थित ग्रंथियों-कर्मो के क्षय का उपाय 'निर्जरा' तत्त्व के रूप में बताया है । वह उपाय है-जिन प्रवृत्तियों में रुचि लेने से कर्मो का बंध हुया है, उन प्रवृत्तियों का उन्मूलन करना । यह कर्मो का उन्मूलन या नाश विनय, सेवा, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग, उपवासादि से संभव है । अतः भगवान् ने इनका विशद वर्णन निर्जरा तत्त्व में किया है। भगवान् महावीर के तत्वज्ञान की विशेषता : याधुनिक मनोविज्ञान अभी मन के स्तरों की संरचना व उनकी कार्य-पद्धति, आन्तरिक स्तरों की विलक्षणता व कुछ चमत्कारों की ही खोज कर पाया है । यह खोज भी चमत्कृत कर देने वाली है। अभी इसका क्षेत्र, मार्गान्तरीकरण, विज्ञापन, सम्मोहन, निर्देशन, वशीकरण आदि जीवन के बाहरी अंगों तक ही सीमित है। जीवन के आन्तरिक स्तर पर अंकित होने वाले संस्कार ग्रंथियों के निर्माण के कारण, उनका निवारण, अंतः स्थित ग्रंथियों को विना प्रकट किए नष्ट करना जैसे उपाय अभी तक वह नहीं खोज पाया है जबकि भगवान् महावीर के तत्त्वज्ञान में व्यवस्थित वैज्ञानिक शैली (कारण-कार्य के
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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