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________________ २३८ मनोवैज्ञानिक संदर्भ को बुरा या दुःख फल मिलता है। इन्हें पाप कर्म कहा जाता है। यह सर्व विदित है कि जो जैसा किसी को देता है बदले में उसको वही वापिस मिलता है । जो गाली देता है उसको वदले में वही वापिस मिलती है । जो डंडा मारता है उसको बदले में मार हो मिलती है । अतः दुःख उसी को मिलेगा जो दूसरों को दुःख देगा । ऐसे बुरे या नहीं करने योग्य कर्मो का भगवान ने पाप तत्त्व के रूप में वर्णन किया है। __ जो स्वयं को या दूसरों को दुःख देने वाले है, ऐसे पाप कार्य अठारह वताये गये हे:- (१) हिंसा (२) झूठ (३) चोरी (४) मैथुन (५) परिग्रह (६) क्रोध -(७) मान (८) माया (8) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह (१३) झठा कलंक (१४) चुगली (१५) निन्दा (१६) रति (भोग रुचि) (१७) कपटता से झूठ बोलना और (१८) मिथ्या दर्शन । उपर्युक्त इन कर्मों से शान्ति भंग होती है, उद्विग्नता बनी रहती है, अन्तर्द्वन्द्व, क्षोभ, अशान्ति, भय, चिन्ता, शोक व दुःख बना रहता है । अतः जो दुःख से बचना चाहे, उन्हें इन पापों से बचना चाहिये । कोई पाप भी करे और चाहे कि उसे दुःख न मिले, यह उसी प्रकार असम्भव है जिस प्रकार कोई पाग में हाथ भी रखे और चाहे कि उसका हाथ न जले । यह कभी भी सम्भव नहीं है । जिस प्रकार दुःख बुरे कर्मो के फल स्वरूप मिलता है उसी प्रकार मुख अच्छे कर्मो के फल स्वरूप मिलता है । दूसरों को सुख पहुंचाने व भलाई करने से ही अपने को सुख व भलाई मिलती है। ऐसे भले कार्यों को पुण्य कहा जाता है । पुण्य के नो भेद कहे हैं-दूसरों को (१) भोजन देना (२) जल पिलाना (३) स्थान देना (४) शय्या प्रदान करना (५) वस्त्र से सहायता पहुंचाना (६) मन से भला सोचना (७) वचन से मधुर बोलना (८) काया से सेवा करना और (8) सबके साथ विनम्र व्यवहार करना आदर, सत्कार, नमस्कार करना आदि। . प्राश्रय व संवर तत्त्व : जिन हेतुत्रों से कर्मों का बंध होता है उन्हें पाश्रय कहते हैं और जिन हेतुओं से कर्मों का वंध होना रुकता हे उमे संवर कहते हैं। पाश्रव के मुस्न्यतः पांच भेद कहे गये है-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कपाय और (५) अशुभयोग । इनके निरोध रूप संवर के भी पांच भेद है-(१) सम्यक्त्व, (२) विरति, (३) अप्रमाद, (४) अकपाय या कपाय मंदता और (५) गुभ योग । यायव में अमंयत्र की और संवर में संयम की प्रधानता होती है। भगवान् महावीर ने धर्म का नार या अवांछनीय स्थितियों से मुक्ति पाने का उपाय संयम बताया है । शारीरिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखना और इनके द्वारा पाप प्रवृत्ति
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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