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________________ १ भगवान् महावीर : जीवन, व्यक्तित्व और विचार पं० के० भुजबली शास्त्री ● प्राविर्भावकालीन स्थिति : आर्य लोग जिस समय भारत में ग्राये उस समय उनकी संख्या अधिक नहीं थी । परन्तु वे सब के सब किसी एक ही स्थान पर न ठहर कर क्रमशः भिन्न २ स्थानों में फैल गये । इस प्रकार फैलकर उनकी अलग-अलग शाखाएँ वन गयीं ओर काल तथा क्षेत्र के प्रभाव से उनके धार्मिक आचरणों में भी अंतर पड़ गया। आर्य लोग एक ईश्वर के उपासक होते हुए भी प्रकृति की विविध अद्भुत शक्तियों में ईश्वर के नाना रूपों की कल्पना करके, देवी देवताओंों के रूप में उनकी उपासना करते रहे। इस कारण से आर्यो के लिये वृक्ष, पशु, नदी, समुद्र, नाग यादि सभी पूजनीय हो गये । इन काल्पनिक देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिये उन्होंने यज्ञ की प्रथा को भी विशेष प्रोत्साहन दिया । परन्तु कालान्तर में इस धार्मिक मूल भावना में भी परिवर्तन हो गया और यज्ञ उनके लिये स्वर्गादिसुख के साधन बन गये । अपने उन यज्ञों में वे हजारों-लाखों मूकनिरपराधी - श्रनाथ पशुओं की वलि देने लगे । उन वलियों से वे विश्वास करने लगे कि देवीदेवता प्रसन्न हो जायेंगे और उनके लिये स्वर्गादि सुख का द्वार अनायास खुल जायेगा । इस प्रकार भारत में घोर हिंसा का अत्यधिक प्रचार हो गया । जब पूजा में ही हिंसा का प्रचार हुआ तव अन्यान्य लौकिक व्यवहारों में हिंसा का प्रचार होना सर्वथा स्वाभाविक ही है । इस प्रकार यहां पर पूजा, उपासना, संस्कार उत्सव आदि में भी हिंसा का बोलवाला हो गया । श्रार्यो ने अपनी सुविधा को दृष्टि में रखकर, कामों को विभाजित कर एक एक काम को उनकी योग्यतानुसार एक एक वर्ग को सौंप दिया था' । श्रागे चलकर वही वर्गविभाजन वर्णों के रूप में परिवर्तित होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के नाम से भिन्नभिन्न चार वर्णं वन गये । कालक्रमेण उन वर्गों में उच्च-नीच की भावना पैदा हो गई और ब्राह्मण तथा क्षत्रिय ग्रपने को उच्च मानकर वैश्य और शूद्रों को हीन दृष्टि से देखने लगे । तदनुसार उनके साथ श्राचरण भी बहुत कुत्सित होने लगा । शूद्र, दास एवं स्त्रियों को केवल नीच ही नहीं समझा जाने लगा, किन्तु उन्हें सामान्य मानवीय अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया । उनको धार्मिक अधिकार तो दिया ही नहीं गया । फलतः कालक्रमेण १ - जैन मान्यतानुसार वर्ण-व्यवस्था तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव की देन है । -सम्पादक
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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