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________________ १९० दाशनिक संदर्भ अहिंसा का व्यापक प्रचार : इसके पश्चात् अहिंसा के प्रचार के बहुत से उदाहरण मिलते हैं। कलिंग युद्ध में एक लाख व्यक्तियों के मारे जाने से सम्राट अशोक का मन किस प्रकार अहिंसा की ओर आकृष्ट हया, यह सर्वविदित है। अपने शिला-लेखों में अशोक ने धर्म की जो शिक्षा दी, उसमें अहिंसा को सबसे ऊंचा स्थान मिला । तेरहवीं-चौदहवीं सदी में वैष्णव धर्म की लहर उठी । उसने अहिंसा के स्वर को देश के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचा दिया। महाराष्ट्र में वारकरी सम्प्रदाय ने भी इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया, और भी बहुत से मम्प्रदायों ने हिंसा को रोकने के लिए प्रयत्न किए । सन्तों की वाणी ने लाखों-करोड़ों नरनारियों को प्रभावित किया। परिणाम यह हुआ कि जो अहिंसा किसी समय केवल तपश्चरण की वस्तु मानी जाती थी, उसकी उपयोगिता जीवन तथा समाज में व्याप्त हुई । उसके लिए जहां कोई सामूहिक प्रयास नहीं होता था, वहां अब बहुत से लोग मिल-जुलकर काम करने लगे। इन प्रयासों का प्रत्यक्ष परिणाम दृष्टिगोचर होने लगा। जिन मनुष्यों और जातियों ने हिंसा का त्याग कर दिया वे सभ्य कहलाने लगीं, उन्हें समाज में अधिक सम्मान मिलने लगा। अहिंसा की सामाजिकता और गांधी : लेकिन अहिंसा के विकास की यह अन्तिम सीमा नहीं थी। वर्तमान अवस्था तक पाने में उसे कुछ और सीढियां चढ़नी थी। वह अवसर उसे युग-पुरुष गांधी ने दिया। उन्होंने देखा कि निजी जीवन में अहिंसा और वाह्य क्षेत्र में हिंसा, ये दोनों चीजें साथ-साथ नहीं चल सकती, इसलिए उन्होंने धार्मिक ही नहीं सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा अन्य सभी क्षेत्रों में अहिंसा के पालन का आग्रह किया। उन्होंने कहा "हम लोगों के दिल में इस झूठी मान्यता ने घर कर लिया है कि अहिंसा व्यक्तिगत रूप से ही विकसित की जा सकती है और वह व्यक्ति तक ही मर्यादित है। वास्तव में बात ऐसी नहीं है । अहिंसा सामाजिक धर्म है और वह सामाजिक धर्म के रूप में विकसित की जा सकती है, यह मनवाने का मेरा प्रयत्न और प्रयोग है।" इतना ही नहीं उन्होंने यहां तक कहा--- __ "अगर अहिंसा व्यक्तिगत गुण है तो वह मेरे लिए त्याज्य वस्तु है। मेरी अहिंसा की कल्पना व्यापक है । वह करोड़ों की है । मैं तो उनका सेवक हूं। जो चीज करोड़ों की नहीं हो सकती है, वह मेरे लिए त्याज्य है और मेरे साथियों के लिए भी त्याज्य होनी चाहिये । हम तो यह सिद्ध करने के लिए पैदा हुए हैं कि मत्य और अहिंसा व्यक्तिगत आचार के ही नियम नहीं हैं, वे समुदाय, जाति और राष्ट्र की नीति हो सकते हैं। मेरा यह विश्वास है कि अहिंसा हमेशा के लिए है, वह आत्मा का गुण है इसलिए वह व्यापक है, क्योंकि प्रात्मा तो सभी के होती है । अहिंसा सबके लिए है, सब जगहों के लिए है, सब समय के लिए है । अगर वह वास्तव में प्रात्मा का गुण है तो हमारे लिए वह सहज हो जाना चाहिए।"
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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