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________________ अध्यात्म विज्ञान से ही मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा संभव प्रति उदासीन न हो जायें । आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि सामान्यतया अच्छाई के लिये एक नई शक्ति के रूप में प्रगट होती है । प्राध्यात्मिक मानव इस संसार की वास्तविकताओं से मुंह नहीं मोड़ लेता है अपितु इस संसार में अधिक अच्छी सामग्री और आध्यात्मिक परिस्थितियां उत्पन्न करने के एक मात्र उद्देश्य से कार्य करता है । दर्शन और चिन्तन, कला और साहित्य प्रादि ग्रात्मिक चेतना को तीव्रतर करने में सहायक होते हैं । लेकिन ग्राज बौद्धिक प्रगति और वैज्ञानिक उन्नति के वावजूद जो इतनी अस्थिरता संघर्ष और अस्तव्यस्तता दिखलाई पड़ती है, वह इसी कारण कि हमने जीवन के श्राध्यात्मिक पहलू की उपेक्षा कर दी । १८५ विज्ञान आध्यात्मिकता का प्रतिपक्षो नहीं है, विरोध नहीं करता है । लेकिन उसके प्रस्तुतीकरण का रूप और उससे प्राप्त परिणाम भयावह अवश्य हैं । वैज्ञानिक उपलब्धियों को अमंगलकारी उद्देश्यों की पूर्ति में लगाने से विज्ञान की आत्मा को ही दूषित कर दिया है । वैज्ञानिक शिक्षा का उद्देश्य मानव के दृष्टिकोण और रुचि को अधम व भौतिक कार्यो तक सीमित कर देना नहीं है । विज्ञान की ठीक समझ आत्मा की विविध शक्तियों की प्रदर्शक है । विज्ञान का विकास उन मनीषियों की मनीपा का सुपरिणाम है, जिन्हें ज्ञान, कौशल और मूल्यांकन की क्षमता प्राप्त है । मानव परमाणु का भंजन इसीलिये कर सका है कि उसके भीतर परमाणु से श्रेष्ठतर का अस्तित्व है । भौतिक उपलब्धियां तो उसकी साक्षी मानी जायेंगी कि मानव चेतना क्या कुछ कर सकती है और क्या-क्या प्राप्त कर सकी है । यन्त्रों को हावी न होने दें : विज्ञान का सामान्यतया यह अर्थ समझा जाता है कि जिसने अनेक अद्भुत ग्राविकारों और तकनीकी यन्त्रों को जन्म दिया। हमारे मन में भी यह मानने की भावना उठती है कि तकनीकी प्रगति ही वास्तविक प्रगति है और भौतिक सफलता ही सभ्यता का मापदण्ड है । यह ठीक है कि तकनीकी आविष्कारों और सभ्यता में अच्छे अवसर और अच्छी संभावनाएं हैं, लेकिन साथ ही बड़े-बड़े खतरे भी छिपे हुए हैं । यदि यन्त्रों का प्रभुत्व स्थापित हो गया तो हमारी सम्पूर्ण प्रगति व्यर्थ हो जायेगी । विज्ञान और तकनीकी ज्ञान न अच्छे हैं और न बुरे । आवश्यकता उन्हें निषिद्ध करने की नहीं वरन् नियन्त्रित रखने और उचित उपयोग की है । यन्त्र मस्तिष्क की विजय के प्रतीक हैं । वे उपकरण हैं, जिनका श्राविष्कार मानव ने अपने आदर्शो को मूर्त रूप देने के लिये किया । हमारे ग्रादर्श गलत हैं तो इसका दायित्व हमारा है, यन्त्रों का नहीं । हमारे आदर्श सही हों तो यत्रों का उपयोग अन्याय के निवारण, मानवता की दशा सुधारने और ग्रात्मा की परिपक्वता प्राप्त करने के प्रयत्न में सहायक हो सकता है । खतरा तभी है, जब वे प्रभु हो जायें । तकनीकी सभ्यता का अभिशाप यही है कि हमारे कार्यों को ग्रात्मा का संस्पर्श नहीं मिलता है । मानव के श्रेष्ठतम अंश का प्रकाशन नहीं हो पाता है और व्यक्ति व्यक्तिगत प्रवृत्ति को खोकर चेतना की सतह पर जीवित रहता है और व्यक्तित्वविहीन हो जाता है, अपनी जड़ें खो बैठता है । अपने स्वाभाविक संदर्भ से अलग जा पहुंचता है । व्यक्ति के अभिमान और अधिकारों और आत्मा की स्वाधीनता को तकनीकी युग में सुरक्षित रखना सरल काम नहीं है । आस्था के पुनर्जीवन से ही यह संभव है ।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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