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________________ महावीर की दृष्टि में मानव-व्यक्तित्व के विकास की संभावनाएं स्थूल उपकरणों से तो संभव है ही नहीं । श्रपुत्रों का भेदन तो ग्रगुत्रों से ही संभव है । किसी परमाणु के भेदन से जब उसके स्थूल तत्त्व प्रोटन में और अधिक सूक्ष्मता आती है तभी उस वैद्य तिक शक्ति का श्राविर्भाव होता है, जो अपनी शक्ति और व्यापकता में महान् है । ग्रात्मा के ज्योतिर्मय रूप का दर्शन उसी समय होता है, जब उसकी सूक्ष्मता तक पहुंचने के लिए निर्जरा की अनवरत प्रक्रिया जारी रखी जाय । कर्म ही स्थूलता है, इसका क्षय ही अणु-भेदन का परिणाम है, संवर तो सतर्कता है । ग्रात्मोन्मुख होते ही स्थूल शरीर से दृष्टि ह्ट कर व्यक्तित्व विकास के क्षेत्र सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्मतम आत्मा तक जा पहुँचता है । ग्रात्मा प्रकाश पुन्ज है । वही अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख-शान्ति और शक्ति का भण्डार है । वह सूक्ष्मतम है और सूक्ष्म माध्यमों से ही ग्रात्मोपलब्धि संभव है । मानवव्यक्तित्व का वही केन्द्र है । इस केन्द्र में निहित शक्तियों का अनावरण कर उसे लोक व्यापी बना देना ही मानव व्यक्तित्व की क्षेत्र विस्तृति है । देश, काल या किसी भी संकुचित मीमा में उसे आवद्ध तो किया जा सकता है जैसे वैद्य तिक शक्ति को किसी बल्ब में, पर उसका व्यापक प्रवाह ब्रह्माण्ड व्यापी है, उसके ज्योतिर्मय स्वरूप को किसी भी सीमा में आवद्ध नहीं किया जा सकता । आधुनिक संदर्भ में भी ग्रात्म विस्तृति ही व्यक्तित्व विकास की सही दिशा है । सम्यक् ज्ञान, दर्शन श्रीर चारित्र तो साधक तत्त्व हैं, ये साध्य नहीं हैं । मानव की रहस्यमयता : मानत्र रहस्यमय है, मानवता उससे भी रहस्यपूर्ण है और उसका समग्र व्यक्तित्व तो एक और जटिल रहस्य है, जिसमें स्थूल और सूक्ष्म तथा वाह्य और ग्रन्तर के अनेक सूत्र एक दूसरे से संश्लिष्ट हैं । 'ग्रात्मान विद्धि' के मार्ग पर चलते हुए महापुरुषों की साधना ने रहस्य के कुछ मूत्र पकड़ कर विविध गुत्थियों को सुलझाने में योगदान किया है । श्रात्मा की विराटता : १५५ यह ग्रात्मा ही वह पुरुष है जो भूमि या पुरों की सीमा को प्रतिक्रान्त कर ब्रह्माण्ड व्यापी बनता है । ' ग्राधुनिक संदर्भ में वह किसी क्षेत्र या देश की सीमा से ग्रावद्ध चिन्तन न कर समग्र मानवता के विषय में विचारने के कारण विराट वन जाता है और उसकी यही विराटता उसके लोकोन्मुख व्यक्तित्व की विराटता है । यह विराटता स्थूल शरीर की नहीं सूक्ष्म ग्रात्मा की ही है । स्वयं महावीर ने श्रेणिक से यह कहा था कि भोग और इन्द्रियों की वासनात्रों में सुख नहीं है, यह तो इन्द्रियों की दासता है, दासता में श्रानन्द कहां ? ग्रात्म-स्वातन्त्र्य को ही उन्होंने सुख का मूल माना है । स्थूल शरीर को उन्होंने महत्त्व प्रदान नहीं किया । ग्रात्म स्वातन्त्र्य और ग्रात्म चैतन्य की उपलब्धि के लिए ही उन्होंने बारह वर्ष की कठोर तपस्या की । स्वयं उनका जीवन श्रात्म - चैतन्य के विस्तार प्रौर मानव-व्यक्तित्व के विकास की अनुपम कहानी है । बारह वर्ष तक अध्ययन, चिन्तन श्रीर मनन के फलस्वरूप उन्होंने जो कुछ प्राप्त किया उसे अपने जीवन में उतार कर अपने ग्राचरण से उसे प्रत्यक्ष किया। विरति तो स्थूल से सूक्ष्म की ओर उठाया गया चरण१ ऋक् - १०/१०
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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