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________________ १०३ समाजवादी अर्थ-व्यवस्था और महावीर महावीर की साधु संस्था और शुद्ध साम्यवाद : महावीर ने अपरिग्रहवाद का मूर्त रूप अपनी साधु संस्था को देकर समाजवादी अर्थ - व्यवस्था का एक ग्रादर्श प्रतीक अवश्य खड़ा किया था । इस साधु संस्था की व्यवस्था को मार्क्स के साम्यवाद की दृष्टि से देखें तो वह शुद्ध साम्यवादी प्रतीत होगी । जैसे मार्क्स ने अपने समाजवादी दर्शन के तीसरे सोपान की कल्पना की है कि सभी शक्ति भर परिश्रम करेंगे और सम-वितरण प्राप्त करेंगे तो वही स्थिति महावीर की साधु संस्था की है । एक प्रकार से यह स्थिति उससे भी ऊंची है क्योंकि साबु संस्था में परिग्रह के साथ उसके प्रति ममत्व का भी प्रभाव मिलेगा-वाह्य के साथ ग्रान्तरिक स्थिति भी सुदृढ़ मिलेगी । महावीर द्वारा 'ग्राचारांग मूत्र' में निर्देशित याचार का पालन करने वाला साधु अपना सम्पूर्ण सांसारिक वैभव तथा उसके प्रति अपने मोह को भी त्याग कर दीक्षित होता है । इसका अर्थ है कि वह व्यक्तिवाद की सारी परिथियों को लांघकर सारे समाज का हो जाता है । यह दीक्षा व्यष्टि का समष्टि में विलयन रूप होती है । लोकहित हेतु श्रात्मनिर्माण में प्रत्येक साधु या साध्वी अपने सम्पूर्ण मनोयोग से कार्यरत हो - यह आवश्यक है किन्तु भोजन या वस्त्रादि का प्रत्येक साधु या साध्वी समान मर्यादित मात्रा में ही उपभोग कर सकता है और वह मर्यादा भी इतनी अल्प होती है कि उससे शरीर पोपण नहीं, शरीर-रक्षण मात्र हो सके । इससे अधिक शुद्ध साम्यवाद और क्या होगा कि व्यक्ति वाह्य परिस्थितियों के दबाव से नहीं झुकता, बल्कि स्वेच्छा से साम्यवाद को अपनाता है और अपने प्रयास से साम्यवाद को मन में जगाकर लोगों को कर्तव्यों में ढालता है । महावीर की साधु संस्था में ऐसे ही व्यक्तित्वों का निर्माण होता है । श्रावक परिग्रह की मर्यादा लें : महावीर के दर्शन - रथ के दो प्रमुख चक्र है - साधु और श्रावक । स्त्री पुरुष समानता के हामी महावीर ने साधु साथ साध्वी और श्रावक के साथ श्राविका को समान स्थान दिया तथा इन चारों को तीर्थ मान कर चतुर्विध संघ - व्यवस्था की स्थापना की । यह संघ व्यवस्था स्वयं समाजवादी व्यवस्था की प्रतीक है | साधु जब सम्पूर्ण रूप से परिग्रह की भावना और वस्तु विषय- दोनों प्रकार से त्याग करता है तो उससे नीचे के साधक - श्रावक के लिये यथाशक्ति ममत्व को कम करते हुए वाह्य परिग्रह याने उपभोग्य पदार्थो की मर्यादा लेने का विधान किया गया है । इसके लिये श्रावक का पांचवां श्रौर सातवां व्रत विशेष रूप से सम्बन्धित है। पांचवें अणुव्रत में क्षेत्र, वस्तु, ( हिरण्य - स्वर्ण ), धन-धान्य, द्विपद, चतुर्पद, धातु आदि के अपने पास रखने के परिणाम को निर्धारित करना होता हे तो सातवें अणुव्रत में एक श्रावक को उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों की भी मर्यादा लेनी पड़ती है । इन पदार्थों की यहां सूची इसलिये दी जा रही है कि जिससे यह समझ में श्राये कि समाज में सारे पदार्थ सबको सुलभ हो तथा सम वितरण की दृष्टि से पदार्थों के संचय की वृत्ति मिटे और उनका सर्वत्र विकेन्द्रीकरण हो — इस दृष्टि से महावीर ने श्रावक धर्म के स्तर पर भी कितना गहरा प्रयास किया था ?
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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