SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरी वाणी मे आदेश दिया। सैनिक अपने वाहनो से उतर पड़े, साथ ही "विश्राम विगुल" की ध्वनि गूंज उठी । असख्य सैनिकसमूह ने ध्वनि सुनकर अपने-२ डेरे जमाए और विश्राम करने लगे। ___ पर्वत व पर्वत के आस पास छाए हुए बन में लगे अनेक प्रकार मीठे, खट्टे फलो का सेना ने भोजन किया, सिन्धुनदी की सहायक नदी का मीठा जल पिया ! सेना विश्राम भी कर रही थी और तत्क्षण मिलने वाले आकस्मिक आदेश के लिये तैयार भी थी। आँखे अवश्य नीद ले रही थी, मन अवश्य विश्राम की गोद मे मोद भर रहा था पर कान मिलने वाले आकस्मिक आदेश को सुनने के लिये चौकन्ले थे। उधर मत्री, सेनापति और महाराज भरत तीनो आगे के लिये विचार परामर्श कर रहे थे । मत्री ने कहा-'यह पर्वत तो विशाल मालूम पड़ता है। जैसे अजेय होकर सीना ताने सामने खडा ललकार रहा हो । सेनापति कुछ भी हो । इसे पार तो करना ही है। विजय की आशा लिये कोई भी यो धवराता नहीं है। ____ मत्री नही 1 नही । मैने घबराने जैसी तो कोई बात कही ही नहीं । मैंने तो विशाल पर्वत की विशालता को कहा है । सेनापति' कोई भी वीर सैनिक, विजय का इच्छुक-अपने सामने किसी भी विशाल को विशाल नहीं समझता। वह तो उसका हर क्षण सामना करने के लिये तैयार रहता है। भरत सेनापति जी | तुम सत्य कहते हो । एक वीर योधा ने के लिये इतना साहस उचित ही है ।। सेनापति · जी महाराज | क्योकि जहाँ भी साहस मे न्यूनता आई कि योधा के कदम डगमगाने की हालत मे हो जाते हैं । और " भरत · और तब योधा किंकर्तव्य विमूढ सा हो जाता है। सेनापति · हा महाराज | और विपक्षी को तव सुअवसर प्राप्त हो जाता है। ताकि वह लडखडाते कदमो से अनैच्छिक लाभ उठा सके।
SR No.010160
Book TitleBhagavana Adinath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasant Jain Shastri
PublisherAnil Pocket Books
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy